मिथिला की पवित्र धरती पर बसे पुनौरा धाम में इन दिनों भक्ति और उल्लास का वातावरण है। माता सीता की जन्मभूमि से कुछ ही दूरी पर स्थित पुंडरीक क्षेत्र का पुराना सूर्य मंदिर छठ महापर्व की तैयारियों में आलोकित हो उठा है।
हर तरफ रंगीन झालरें, तालाब किनारे सजे दीप, छठ गीतों की स्वर लहरियां और श्रद्धालुओं का उत्साह, मानो पूरा मिथिला सूर्य आराधना की रोशनी में नहा रहा हो।
यह वही ऐतिहासिक स्थान है, जहां ऋषि पुंडरीक मुनि ने हजारों वर्ष पूर्व कठोर तपस्या कर भगवान सूर्य की प्रतिमा की स्थापना की थी। तब से लेकर आज तक यह स्थल सूर्य उपासना और छठ पर्व का केंद्र बना हुआ है।
पौराणिक आस्था से जुड़ा स्थल, जहां ऋषि पुंडरीक ने किया था तप
पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि ऋषि पुंडरीक ने इस भूमि को तपोभूमि के रूप में चुना था। कहा जाता है कि उन्होंने यहीं पर वर्षों तक सूर्य देव की उपासना की और उनकी कृपा से यह स्थान ‘सिद्धस्थल’ कहलाया।
मंदिर के चारों ओर का भू-आकृति विन्यास आज भी इस बात का साक्षी है। मंदिर के पूर्व में सूर्य देव का गर्भगृह, पश्चिम दिशा में शिव मंदिर, दक्षिण में मां काली का मंदिर और उत्तर में विशाल तालाब स्थित है, जो इसे आध्यात्मिक और ज्यामितीय दृष्टि से अत्यंत विशिष्ट बनाता है।
‘सूर्य को अर्घ्य देने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं’
स्थानीय पुजारी उमेशानंद जी महाराज बताते हैं, ‘छठ पर्व पर पुंडरीक क्षेत्र का यह सूर्य मंदिर लोक आस्था का केंद्र बन जाता है। यहां स्नान कर सूर्य देव को अर्घ्य देने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यही कारण है कि हर वर्ष श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती जा रही है।’
गांवों से लेकर शहरों तक, हर घर में छठ की तैयारियां चल रही हैं। महिलाएं व्रत के लिए सामग्री तैयार कर रही हैं, जबकि युवक घाटों की सफाई में जुटे हैं।सूर्य मंदिर के चारों ओर श्रद्धालुओं की चहल-पहल इस बात की गवाही दे रही है कि यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मिथिला की जीवन-धारा है।
1986 में जनसहयोग से बना भव्य मंदिर
पुराने स्थानीय लोगों के अनुसार, वर्ष 1986 में जनसहयोग और दान से यहां एक भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण किया गया था। इससे पहले श्रद्धालु केवल ऋषि पुंडरीक द्वारा स्थापित पुराना पीठ की पूजा करते थे।
अब यहां सूर्य देव की भव्य प्रतिमा स्थापित है, जिसके चारों ओर हर साल चार दिन तक चलने वाले छठ पर्व के दौरान हजारों श्रद्धालु अर्घ्य अर्पित करते हैं।संध्या के समय जब तालाब के पानी में दीपों की पंक्तियां तैरती हैं और ‘कांच ही बांस के बहंगिया’ की धुन गूंजती है, तो पूरा परिसर दिव्य आभा से जगमगा उठता है।
चार दिन का पर्व, चार युगों की आस्था
नहाय-खाय, खरना, संध्या अर्घ्य और उषा अर्घ्य, छठ के चारों दिन मिथिला में धर्म, अनुशासन और नारी शक्ति के प्रतीक माने जाते हैं। महिलाएं सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों समय अर्घ्य देकर जीवन, ऊर्जा और परिवार की समृद्धि की कामना करती हैं। पुनौरा और पुंडरीक क्षेत्र के गांवों में हर घर में इस समय एक ही माहौल है, सफाई, व्रत, गीत और आस्था का उत्सव।
व्रती महिलाएं कहती हैं, ‘सूर्य देव की आराधना से जीवन में प्रकाश आता है। यह पर्व हमें धैर्य, अनुशासन और समर्पण का पाठ सिखाता है।”
सीता की भूमि से जुड़ा आध्यात्मिक संदेश
सीतामढ़ी को माता सीता की जन्मभूमि कहा जाता है। यह वही भूमि है, जहां नारी को शक्ति, सहनशीलता और सृजन का प्रतीक माना गया। छठ पर्व में वही भावनाएं दोहराई जाती हैं। नारी का व्रत, उसका त्याग और उसकी श्रद्धा समाज को शक्ति देती है। स्थानीय सामाजिक संस्थाएं इस वर्ष छठ पर्व को ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान से जोड़ रही हैं।घाटों पर बैनर लगाए गए हैं —
‘छठ की अर्घ्य के साथ बेटी को जीवन दें, भ्रूण हत्या नहीं। सूर्य की किरणें जीवन का आधार हैं, बेटी उसका उजाला है।’
यह प्रयास मिथिला की उस सांस्कृतिक सोच को फिर से जीवंत करता है, जहां सीता की तरह हर बेटी पूजनीय मानी जाती है।
तालाब किनारे दीपदान से जगमगाया पुंडरीक क्षेत्र
छठ पर्व के दौरान सूर्य मंदिर के पास स्थित विशाल तालाब श्रद्धालुओं से खचाखच भर जाता है। शाम के समय जब महिलाएं गीले वस्त्रों में खड़ी होकर अर्घ्य देती हैं, तो तालाब की लहरों पर हजारों दीप तैरते हुए दिखाई देते हैं। दीपों का यह समंदर मानो यह संदेश देता है कि अंधेरा चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, आस्था की लौ हमेशा जलती रहेगी।
यह दृश्य देखने के लिए आसपास के गांवों से लोग अपने परिवार सहित आते हैं।बच्चे तालाब के किनारे “छठ मइया” के गीत गाते हैं और महिलाएं सामूहिक रूप से आरती करती हैं।
प्रशासन और स्थानीय समिति की तैयारी
इस वर्ष जिला प्रशासन ने पुंडरीक क्षेत्र में विशेष तैयारी की है। तालाब के चारों ओर सुरक्षा बैरिकेडिंग, सोलर लाइटें, मेडिकल कैंप और डाइविंग टीम तैनात की गई है। सीतामढ़ी के एसडीओ बताते हैं, ‘पुंडरीक सूर्य मंदिर ऐतिहासिक धरोहर है। श्रद्धालुओं की सुरक्षा हमारी पहली प्राथमिकता है। स्वच्छता और व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।’
स्थानीय समिति के कार्यकर्ता अमरनाथ झा कहते हैं, ‘हर वर्ष यहां हजारों श्रद्धालु आते हैं। हम लोगों ने तालाब की सफाई और घाटों पर सीमेंट स्लैब बिछाने का काम कराया है ताकि कोई फिसले नहीं।’
लोकगीतों में झलकता मिथिला का जीवन
छठ पर्व के दौरान मिथिला के लोकगीत इस पूरे क्षेत्र को भावनात्मक बना देते हैं। संध्या में गूंजते गीत, ‘उग हे सूर्य देव भोर भइल, ‘महिलाओं के सधे स्वर में भक्ति की ऐसी गूंज फैलाते हैं, जो किसी मंदिर की घंटी से कम नहीं। मिथिला की संस्कृति और छठ के गीतों का यह मेल पुनौरा धाम और पुंडरीक क्षेत्र को आस्था का जीवंत उत्सव बना देता है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी संबल
छठ पर्व मिथिला की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए भी जीवनरेखा है। इस दौरान बांस के डाले, सूप, फल, नारियल, टेकुआ, प्रसाद और कपड़ों की बिक्री से स्थानीय परिवारों की आमदनी बढ़ जाती है। गांव की महिलाएं टेकुआ बनाकर बाजारों में बेचती हैं, जबकि किसान अपनी फसलों को घाटों तक पहुंचाते हैं। इससे पूरे इलाके में रोजगार और आत्मनिर्भरता का माहौल बन जाता है।
सदियों पुरानी परंपरा आज भी जीवंत
स्थानीय बुजुर्गों का कहना है कि यह परंपरा सदियों पुरानी है। पूर्वजों से सुना गया है कि जब जनकपुर और पुनौरा धाम के बीच धार्मिक यात्राएं होती थीं, तब श्रद्धालु यहां रुककर सूर्य देव की पूजा करते थे। कहते हैं, जो भी पुंडरीक क्षेत्र में अर्घ्य देता है, उसकी संतान, स्वास्थ्य और समृद्धि बनी रहती है। यह विश्वास आज भी उतनी ही मजबूती से लोगों के मन में है जितना पहले था।
आस्था, संस्कृति और सादगी का पर्व
छठ की सबसे बड़ी खूबी उसकी सादगी है, न ढोल-नगाड़े, न वैभव का प्रदर्शन। केवल मिट्टी के दीपक, गुड़ का प्रसाद और श्रद्धा से भरे मन। पुंडरीक क्षेत्र में यह सादगी हर कोने में झलकती है।सूर्यास्त के समय जब लोग एक स्वर में “जय छठ मइया” कहते हैं, तो ऐसा लगता है मानो मिथिला की आत्मा स्वयं मुस्कुरा रही हो।
जहां छठ, सीता और सूर्य का संगम होता है
सीतामढ़ी का पुंडरीक क्षेत्र केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि मिथिला की सभ्यता और आस्था का केंद्र है। यहां छठ पर्व केवल पूजा नहीं, बल्कि परिवार, प्रकृति और समाज के संतुलन का संदेश है। सूर्य की आराधना के साथ जब महिलाएं बेटी, पति और परिवार की खुशहाली की कामना करती हैं, तो यह परंपरा सदियों पुराने मूल्यों को फिर से जीवित कर देती है।
यह वही भूमि है जहां सीता जन्मीं, जहां पुंडरीक ने तप किया, और जहां आज भी आस्था की लौ अटल जल रही है। पुनौरा धाम और पुंडरीक क्षेत्र का छठ पर्व इस बात का प्रतीक है कि मिथिला की संस्कृति में न तो आस्था बुझी है और न ही सूर्य की आराधना का प्रकाश कम हुआ है।