* दिल्ली पुस्तकालय संघ ने मनाई भारत में पुस्तकालय विज्ञान के जनक रंगनाथन की 133 वीं जन्म जयंती मनाई ।
दिल्ली पुस्तकालय संघ ने नारायणा विहार स्थित अपने मुख्यालय पर राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस एवं भारत में पुस्तकालय विज्ञान के जनक ” पद्म श्री एस. आर. रंगनाथन जी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में “श्रीमद भगवतगीता और पुस्तकालय विज्ञान ” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन भी किया गया । श्री रंगनाथन जी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि एवं दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। दिल्ली पुस्तकालय संघ के अध्यक्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय गांधी भवन के निदेशक पुस्तकालय विज्ञान के प्रो.के.पी. सिंह ने मुख्य अतिथियों का अभिनंदन स्वागत प्रतीक चिन्ह और अंग वस्त्र प्रदान करके किया। प्रो सिंह ने रंगनाथन की 133 वीं जयंती एवं विक्रम साराभाई की जयंती की शुभकामनाएं दी ।
दिल्ली पुस्तकालय संघ के विषय में सभी को विस्तृत जानकारी देते हुए प्रोफेसर के.पी.सिंह ने बताया कि यह संस्था 1939 से निरंतर पुस्तकालय शिक्षा और शोध के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभा रही है। उन्होंने बताया श्रीमद् भागवत गीता पर संवाद करने का उद्देश्य यह है कि हम सभी यह सीखें कि यह ग्रंथ कैसे जीवन जीना है हमें सिखाता है। यह ग्रंथ हमारे लिए ज्ञान का भंडार है । हमें अपने जीवन में धर्म को प्रधानता देनी चाहिए। गीता हमें जीवन जीने की शैली प्रदान करती है ।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि, इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक प्रो के.जी. सुरेश ने अपने संबोधन में कहा कि भगवत गीता और पुस्तकालय विज्ञान के साथ संबंध की गहन व्याख्या की। उन्होंने कहा की भगवत गीता में ज्ञान योग की बात की गई और ज्ञान योग पुस्तकालयों के अतिरिक्त कहां प्राप्त हो सकता है। उनका कहना था कि पुस्तकालय तीर्थ स्थान के समान है । आज हम सभी जो भी बन सके हैं ;वह पुस्तकालय की ही देन तो है। पुस्तकालय हमारे जीवन का आधार है। हमारे देश पर जब भी पहले हमला हुआ तो सबसे पहले हमारे पुस्तकालयों पर हुआ। उन्होंने नालन्दा व विश्वविद्यालयों का उदाहरण दिया और कहा कि आक्रमकारियों ने सबसे पहले पुस्तकालयों पर हमला किया , हमारे ग्रंथ नष्ट किए क्योंकि किसी भी देश के ज्ञान के भंडार एवं आध्यात्मिक भंडार नष्ट करना उसे देश की आत्मा को क्षीण करना है। गीता आह्वान करती है कि हम पुस्तकालय में नवाचार पर तो ध्यान दें परंतु पुस्तकों से प्रेम किए बगैर हम पुस्तकालय को महान नहीं बना सकते। हमें पुस्तकालयों के सक्रिय संचालन पर भी ध्यान देना होगा।
मुख्य वक्ता श्रीला भक्ति विबुद्ध मणि महाराज जी ने मंगलाचरण से अपनी बात आरंभ की। उन्होंने बताया कि यह जानना आवश्यक है कि भगवान कृष्ण स्वयं भगवान है। वे अजन्मा हैं। भक्ति काल में जितने भी बड़े लेखक और कवि हुए हैं उनके आराध्य भगवान श्री कृष्ण ही हैं। वह सभी कारकों के कारक है। जो भी कार्य करते हैं वह लीला मात्र है। श्रीमद् भागवत गीता भगवान का वांग्मय स्वरूप है। हम सब का अंतिम लक्ष्य तो आनंद ही है और वह आनंद केवल भगवान कृष्ण में समाहित है ;क्योंकि सत्य और आनंद से निर्मित होकर के सच्चिदानंद बने हैं। उन्होंने बताया कि भक्तिकाल के सभी संतों ने कृष्ण के आराध्य देव की उपासना की है ।
मुख्य अतिथि, मानव रचना विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. संजय श्रीवास्तव ने संबोधित करते हुए कहा कि गीता से बहुत कुछ सीखने को मिलता है और प्रबंधन के लिए यह सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। उन्होंने कहा कि पुस्तकालय विज्ञान से जुड़े हुए लोग ही निःस्वार्थ भाव से काम करते हैं वह कभी किसी की रिसर्च पर क्लेम नहीं करते पर सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होता है। गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो भाव स्वभाव प्रभाव एवं अभाव को समभाव में परिवर्तित करता है। उन्होंने बताया कि हम सभी अपने आप में अनोखे हैं ;क्योंकि हमारे आंख की रेटिना और हथेली की रेखाएं अनोखी होती है। यह दो चीजें कभी किसी की एक समान नहीं होती हैं। उन्होंने कहा कि जीवन सिर्फ परीक्षाओं का ही खेल है और हमारी आलोचना ही जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जाती है।
इग्नू के क्षेत्रीय निदेशक अशोक शर्मा जी ने संक्षिप्त में अपनी बात रखते हुए कहा की पुस्तक और पुस्तकालय ऐसे अद्वितीय अवयव है जो मेरे जैसे दसवीं के औसत छात्र को विश्वविद्यालय से निकलते समय गोल्ड मेडलिस्ट बना देते हैं। डॉ मधु मिधा ने अपनी बात रखते हुए कहा की हम सभी इतना ज्ञान अर्जित करें कि वह विज्ञान बन जाए। अंत में ज्ञानेंद्र नारायण जी ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया एवं कार्यक्रम का संचालन पिंकी जी ने किया। कार्यक्रम में अनेक गणमान्य व्यक्ति जिसमें प्रोफेसर मनोज कुमार केन , प्रोफेसर हंसराज सुमन , डॉ. संजीव गौतम के अलावा प्राध्यापक शोधार्थी शामिल हुए ।
प्रोफेसर के.पी.सिंह