सीवान ICDS में 2 माह से ‘राशन नहीं, रिकॉर्ड पूरा’:आंगनबाड़ी योजना में संगठित लूट, दबाव और फर्जी वितरण का पर्दाफाश

सीवान में समेकित बाल विकास सेवा(ICDS) इन दिनों बच्चों और गर्भवती महिलाओं के पोषण की योजनाओं को लागू करने की जगह कागजों में पूरा करने की फैक्ट्री बन चुकी है। ICDS में चावल नहीं होने के कारण, यहां काम कर रहे लोगों को अनाज खरीदकर बांटना पड़ रहा है।

टेक होम राशन और पूरक पोषाहार जैसी संवेदनशील योजनाएं, जिनका उद्देश्य कुपोषण से जूझ रहे बच्चों और महिलाओं को समय पर पोषण उपलब्ध कराना है, अब भ्रष्टाचार, दबाव और फर्जीवाड़े की भेंट चढ़ती नजर आ रही हैं।

सरकारी दावों के उलट जमीनी सच्चाई ये है कि सीवान में बच्चों के नाम पर आवंटित अनाज और राशि का लाभ उन्हें नहीं, बल्कि सिस्टम की खामियों और अधिकारियों की मनमानी को मिल रहा है।

3860 केंद्रों पर दो महीने से चावल गायब

सीवान में संचालित 3860 आंगनबाड़ी केंद्रों पर पिछले दो महीनों से चावल जैसी बुनियादी सामग्री तक उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद जिला प्रोग्राम पदाधिकारी ने लगातार वितरण के आदेश जारी किए गए।

हालात ऐसे बना दिए गए कि आंगनबाड़ी सेविकाओं के सामने दो ही रास्ते थे या तो वे अपनी जेब से राशन खरीदें या फिर उधार लेकर वितरण दिखाएं। कई सेविकाओं ने बताया कि उन्होंने स्थानीय दुकानदारों से उधार लेकर केंद्रों पर सामग्री रखी, ताकि निरीक्षण के दौरान केंद्र खाली न दिखाई दे। इस पूरे खेल में असली लाभुक बच्चे और महिलाएं कहीं नजर नहीं आते।

बैकडेटिंग से पूरा किया गया नवंबर का वितरण

नवंबर माह के वितरण को लेकर जो कुछ हुआ, उसने पूरे सिस्टम की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। तत्कालीन जिला पदाधिकारी के ट्रांसफर के समय 4 दिसंबर को एक आदेश निकाला गया, जिसमें नवंबर माह के वितरण की डेट 11 दिसंबर दर्शा दी गई।

कागजों में नवंबर का वितरण पूरा दिखा दिया गया, लेकिन हकीकत यह थी कि केंद्रों पर अनाज आया ही नहीं था। आदेश की तारीख और वितरण की तारीख के बीच का यह खेल साफ संकेत देता है कि रिकॉर्ड को बाद में पूरा करने की कोशिश की गई।

वितरण नहीं दिखाया तो कार्रवाई होगी

मीडिया की पड़ताल में आंगनबाड़ी सेविकाओं ने खुलकर बताया, दो महीने से चावल नहीं आया है, लेकिन जिला कार्यालय का दबाव है कि वितरण हर हाल में दिखाना होगा। सेविकाओं का कहना था, अगर उन्होंने वितरण नहीं दिखाया, तो उनके खिलाफ कार्रवाई की धमकी दी गई।

यह बयान न केवल सिस्टम की सच्चाई उजागर करता है, बल्कि यह भी बताता है कि कैसे निचले स्तर के कर्मचारियों को मोहरा बनाकर बड़े अधिकारी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं।

CDPO को थी जानकारी, फिर भी जारी रहा दबाव

प्रखंड स्तर पर तैनात बाल विकास परियोजना पदाधिकारी भी इस स्थिति से पूरी तरह अवगत थे। कई सीडीपीओ ने स्वीकार किया कि उन्होंने जिला प्रोग्राम कार्यालय को बार-बार स्थिति से अवगत कराया, लेकिन वहां से स्पष्ट निर्देश था कि किसी भी हालत में वितरण कराया जाए। सवाल यह उठता है कि जब केंद्रों पर सामग्री ही नहीं थी, तो वितरण आखिर किस चीज का कराया गया। क्या यह वितरण सिर्फ रजिस्टरों और ऑनलाइन पोर्टल तक सीमित था?

चावल ही नहीं है तो जांच क्या करें?

स्थिति तब और गंभीर हो गई जब जिला पदाधिकारी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए निरीक्षण के आदेश दिए। प्रखंड स्तर के एक वरीय अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जब चावल ही नहीं है, तो जांच में आखिर देखा क्या जाएगा। यह बयान बताता है कि सिस्टम के भीतर बैठे अधिकारी भी जानते हैं कि सब कुछ गलत है, लेकिन जिम्मेदारी तय करने की इच्छाशक्ति कहीं नजर नहीं आती।

चार दिन में दो महीने का वितरण

11 दिसंबर को मामला मीडिया में आने के बाद उम्मीद थी कि व्यवस्था सुधरेगी, लेकिन इसके उलट चार दिन के भीतर ही दिसंबर माह के वितरण की तिथि 15 दिसंबर तय कर दी गई। यानी महज चार दिन के अंतराल में दो महीने का वितरण। सवाल उठता है कि क्या बच्चों को दो महीने का पोषण चार दिन में दे दिया गया, या फिर यह भी सिर्फ रिकॉर्ड सुधारने की कवायद थी।

दिसंबर में भी न राशन, न पैसे

दिसंबर माह के वितरण के समय हालात और ज्यादा चौंकाने वाले थे। न तो केंद्रों पर राशन उपलब्ध था और न ही पोषाहार मद की राशि सेविकाओं के खातों में आई थी। इसके बावजूद वितरण के आदेश जारी कर दिए गए। जिन केंद्रों पर जांच होनी थी, वहां सेविकाओं को निर्देश दिया गया कि वे उधार लेकर सामग्री सजाएं, ताकि निरीक्षण के दौरान सब कुछ ठीक दिखाई दे।

जांच टीम बनी, लेकिन रिपोर्ट आरोपी को ही

नवपदस्थापित जिला पदाधिकारी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच टीम का गठन किया, लेकिन जांच रिपोर्ट उसी सीडीपीओ को सौंपने का निर्देश दिया गया, जिन पर वितरण कराने का आरोप है। यह व्यवस्था संदेह के घेरे में है। सवाल उठता है कि क्या आरोपी ही जांच करेगा और क्या इससे निष्पक्ष रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।

राज्य बाल संरक्षण आयोग की जांच भी सवालों में

समाज कल्याण विभाग के निर्देश पर राज्य बाल संरक्षण आयोग की अन्वेषण पदाधिकारी सीमा रहमान को जांच के लिए सीवान भेजा गया। लेकिन यह जांच भी औपचारिकता बनकर रह गई। उन्होंने केवल दरौंदा प्रखंड के तीन सजे-संवरे केंद्रों का निरीक्षण किया और बिना मीडिया से बातचीत किए लौट गईं। सवाल पूछने पर सरकारी गाड़ी का गेट बंद कर निकल जाना, जांच की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है।

एफआरएस सिस्टम भी हुआ फेल

आईसीडीएस में पारदर्शिता के लिए लागू एफआरएस सिस्टम भी इस पूरे मामले में फेल नजर आया। नियमों के अनुसार एक माह में एक बार वितरण किया जाना है, लेकिन यहां चार दिन के अंतराल में दो बार वितरण दिखाया गया। नतीजा यह हुआ कि एफआरएस सिस्टम ने लाभुकों का चेहरा लेने से ही इनकार कर दिया। तकनीक ने सिस्टम की गड़बड़ी पकड़ ली, लेकिन कार्रवाई अब भी बाकी है।

बैंक में सेविकाओं की भीड़ ने खोली पोल

16 दिसंबर को मीडिया ने बैंकों का जायजा लिया। वितरण के अगले दिन बड़ी संख्या में आंगनबाड़ी सेविकाएं बैंकों में दिखीं। इसका साफ मतलब था कि वितरण के समय उनके खातों में पैसे थे ही नहीं। कैमरा देखते ही सेविकाएं घबरा गईं और वीडियो न बनाने की अपील करने लगीं। उनका डर बताता है कि इस पूरे सिस्टम में असली पीड़ित कौन हैं।

बच्चों के नाम पर पैसा आखिर गया कहां?

सरकार का दावा है कि बच्चों और गर्भवती महिलाओं को हर सुविधा समय पर दी जा रही है, लेकिन सीवान की तस्वीर इन दावों को खोखला साबित करती है। बच्चों के नाम पर आवंटित 25 दिन के पोषाहार और नाश्ते की राशि आखिर कहां जा रही है, यह बड़ा सवाल है। क्या बच्चों को दो महीने का खाना एक महीने में खिलाया जा सकता है?

सवालों पर चुप्पी, कॉल काटा और नंबर ब्लॉक

जब जिला प्रोग्राम पदाधिकारी तरणि कुमारी से इस पूरे मामले पर जवाब मांगा गया, तो उन्होंने कॉल काट दी और बाद में नंबर ब्लॉक कर दिया। जवाब देने से बचना अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।

पुराने आरोप और फिर वही पोस्टिंग

गौरतलब है कि इससे पहले भी तरणि कुमारी पर इसी तरह के आरोप लग चुके हैं और सीवान में पदस्थापना के दौरान उन्हें निलंबित किया गया था। इसके बावजूद दोबारा सीवान जैसे संवेदनशील जिले में उनकी तैनाती होना पूरे प्रशासनिक सिस्टम पर सवाल खड़े करता है।

यह सिर्फ भ्रष्टाचार नहीं, बच्चों के हक की लड़ाई है

सीवान का यह मामला सिर्फ भ्रष्टाचार का नहीं, बल्कि कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं के हक की खुली लूट का है। अब देखना यह है कि शासन-प्रशासन इसे गंभीरता से लेता है या यह मामला भी फाइलों में दबा दिया जाएगा। आंगनबाड़ी केंद्रों से उठ रही यह आवाज अब जवाब मांग रही है, राशन कहां गया और बच्चों को उनका हक कब मिलेगा।

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