अदालतों की न्यायिक सक्रियता पर जाने-माने वकीलों और राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों की प्रतिक्रियाएं

जब देश आजाद हुआ तो उसे लोकतांत्रिक प्रणाली से चलाने के लिए एक ढांचे की जरूरत महसूस की गई। लिहाजा संविधान सभा का गठन हुआ जिसमें तमाम वर्गों, विचारधाराओं के बुद्धिजीवी शामिल हुए। दो साल ग्यारह महीने और अठारह दिन बाद देश का संविधान तैयार हुआ। यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है और दुनिया के तमाम देशों की अच्छी बातें इसमें शामिल हैं। संविधान तैयार करते समय बहुत दूरगामी दृष्टिकोण अपनाया गया यानी आज लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच जो द्वंद्व सामने आ रहे हैं, उसकी परिकल्पना हमारे पुरखों ने उसी समय कर ली थी। संविधान में उसका निवारण भी सुझा दिया था। न्यायपालिका, धायिका और कार्यपालिका के अधिकारों, कर्तव्यों और सीमाओं की हदें तय कर दीं। विधायिका नीतियां और कानून बनाएगी। न्यायपालिका सभी नागरिकों को उन नीतियों और कानूनों से न्याय दिलाएगी और कार्यपालिका उनको जमीनी स्तर पर कुशलतापूर्वक लागू करेगी। कोई भी संस्था उस लक्ष्मणरेखा को पार न करे तो लोकतंत्र पुष्पित-पल्लवित होता रहेगा। उनकी दूरदृष्टि और आशंका दोनों ही गैरजायज नहीं थीं। उसी सोच से चलते हुए हम अब तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गौरव पाते हैं, लेकिन हमारे महापुरुषों की आशंका का भी यदा-कदा प्रकटीकरण होता रहता है।

महामारी के इस अभूतपूर्व दौर में जब स्वास्थ्य सुविधाएं मरीजों के अनुपात में नगण्य साबित हुईं, व्यवस्थाएं चरमरा गईं, लोगों को बहुत दिक्कतें हुईं, सरकारों की तमाम कोशिशें भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती दिखीं, ऐसे में न्यायपालिका ने सरकारों पर ऐसी सख्त टिप्पणियां कीं जिनको उस समय-सीमा और उस तरीके से पूरा करना नामुमकिन ही नहीं, असंभव सा था। ऐसे में एक बार फिर लोगों को संविधान याद आया। वही संविधान जो सर्वोपरि है और जिसने सबकी लक्ष्मणरेखा तय कर रखी है। कार्यपालिका के पास नीति-नियतांओं की एक विशेषज्ञ और सुविज्ञ टीम है, ऐसे में उसकी योजनाओं को एक झटके में खारिज कर देना या रद कर देना कितना संवैधानिक है। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों, कर्तव्यों और उनकी सीमाओं की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

अदालतों की न्यायिक सक्रियता पर सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकीलों और अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों की प्रतिक्रियाएं:

नीतिगत सुसंगता के लिए हो हस्तक्षेप (भूपेंद्र यादव भाजपा महासचिव)

न्यायिक सक्रियता में न्यायिक संतुलन आवश्यक है। न्यायालय को जनहित याचिकाओं में हस्तक्षेप करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर नीतिगत विषयों के क्रियान्वयन पर नागरिकों में भेदभाव या असमानता है, तो इस ओर इंगित कर सकती है। परंतु वह नीतियों का निर्माण नहीं कर सकती है। जिस प्रकार से हम स्वतंत्र न्यायपालिका मानते हैं, उसी प्रकार से स्वतंत्र विधायिका और स्वतंत्र न्यायपालिका की कुछ आंतरिक नियंत्रण की शक्तियां भी होती हैं, उन पर भी हमको विश्वास करना चाहिए। हर एक संस्थान की अपनी मर्यादा होती है, अतैव न्यायपालिका का सरकारी विषयों में हस्तक्षेप नीतिगत सुसंगता के लिए होना चाहिए, नीतिगत निर्माण के लिए नहीं

संविधान की आत्मा का उल्लंघन (गौरव भाटिया प्रवक्ता, भाजपा)

विधायी शक्तियों का अतिक्रमण करने वाली न्यायिक सक्रियता से संविधान की आत्मा का उल्लंघन होगा। न्यायिक संयम भी न्यायिक सक्रियता जितना ही जरूरी है और न्यायपालिका को इसका भी ध्यान रखना चाहिए। नीतिगत मामलों से जुड़े फैसलों को कार्यपालिका पर ही छोड़ देना चाहिए, जब तक कि उनमें कोई मनमानी बात या समानता के अधिकार का उल्लंघन न होता हो