14 Phere Movie Review: हल्की-फुल्की मनोरंजक फ़िल्म है विक्रांत मैसी और कृति खरबंदा की ’14 फेरे’, पढ़ें रिव्यू

हिंदी सिनेमा में ऐसी तमाम लव स्टोरी आयी हैं, जिनमें मान-मर्यादा, झूठी शान, परम्परा और प्रतिष्ठा के नाम पर प्यार की बलि चढ़ती दिखायी जाती रही है या जिनमें प्यार की परिणीति ऑनर किलिंग पर होती है। कभी प्यार को मंज़िल मिल जाती है तो कभी मंज़िल पर पहुंचने से पहले ही प्यार दम तोड़ देता है।

भारतीय समाज की जटिलता इन प्रेम कहानियों के ज़रिए पर्दे पर आती रही है और जब तक यह जटिलता है, फ़िल्मकारों को इन्हें दिखाने का मौक़ा मिलता रहेगा। बस कहानी कहने का अंदाज़ बदलता रहता है। कभी ‘ट्रैजिक लव स्टोरी’ एक-दूजे के लिए बन जाती है तो कभी ‘हैप्पी एंडिंग’ दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे। ऐसी ही तमाम प्रेम कहानियों के बीच की फ़िल्म है 14 फेरे, जिसमें सामाजिक जटिलताओं के बीच शादी करने के लिए प्रेमी युगल की तिकड़मों के ज़रिेए कॉमेडी का तड़का लगाया गया है।

मगर, नई सदी के ये नायक-नायिका प्यार में परिवार नाम की बाधा (इस केस में दोनों ओर से खड़ूस पिता) आने पर किसी कोने में जाकर दुखभरे नग़मे नहीं गाते और ना ही हाथों में हाथ डालकर कूदने के लिए किसी पहाड़ी की तलाश करते हैं। बल्कि प्यार को शादी की मंज़िल तक पहुंचाने के लिए विकल्प की तलाश करते हैं, भले ही उसके लिए 7 की जगह 14 फेरे लेने पड़ें।

अदिति करवासड़ा (कृति खरबंदा), संजय लाल सिंह (विक्रांत मैसी) की सीनियर है। कॉलेज में दोनों के बीच प्यार होता है। पढ़ाई ख़त्म होने के बाद दिल्ली में एक ही एमएनसी में जॉब भी करते हैं और लिव-इन में रहते हैं। शादी करना चाहते हैं, मगर दोनों के रूढ़िवादी परिवार रास्ते की सबसे बड़ी बाधा हैं।

संजय बिहार के राजपूत परिवार का है। अदिति राजस्थान के जाट परिवार से है। संजय के पिता कन्हैयालाल सिंह (विनीत कुमार) जहानाबाद के बाहुबली हैं। स्थानीय पुलिस उनके इशारे पर नाचती है। जाट परिवार की अदिति राजस्थान के जयपुर की है। उसके पिता धर्मपाल करवासड़ा (गोविंद पांडेय) पुराने रईस और बिज़नेसमैन हैं। रजवाड़ों की धमक रहन-सहन से लेकर आचार-विचारों तक में साफ़ झलकती है

दोनों परिवारों के लिए बच्चों की ख़ुशी से बढ़कर परम्परा और प्रतिष्ठा है। इज़्ज़त के लिए ऑनर किलिंग करना दोनों ही परिवारों के लिए मामूली बात है। ऐसे नामुमकिन से हालात में अदिति संजय को अमेरिका शिफ्ट होने के लिए मनाने की कोशिश करती है। उसका मानना है कि अमेरिका में दोनों के लिए शादी करके सेटल होना आसान होगा। मगर, संजय तैयार नहीं है। अपने दबंग परिवार में मां को अकेला नहीं छोड़ना चाहता।

थिएटर के शौक़ीन संजय को आख़िरकार इस समस्या का समाधान भी थिएटर में ही मिलता है। संजय, अदिति के साथ मिलकर प्लान बनाता है कि वो एक-दूसरे के परिवारों को नकली माता-पिता से मिलवाएंगे। इसके लिए दो थिएटर कलाकारों की तलाश की जाती है।

पिता का किरदार निभाने के लिए एक वेटरन थिएटर आर्टिस्ट अमय (जमील ख़ान) को ढूंढा जाता है। मां का किरदार निभाने के लिए संजय अपने थिएटर ग्रुप की एक्ट्रेस ज़ुबिना (गौहर ख़ान) को मना लेता है। ये दोनों कलाकार पहले संजय के मां-बाप बनकर अदिति के परिवार से मिलते हैं और वहां रिश्ता पक्का करते हैं और फिर अदिति के मां-बाप बनकर संजय के माता-पिता से मिलकर रिश्ता पक्का करते हैं।

नकली मां-बाप की तरह नकली रिश्तेदार भी तैयार किये जाते हैं, जो संजय और अदिति के ऑफ़िस के सहकर्मी होते हैं। आगे की कहानी संजय और अदिति की बिहार और जयपुर में जाकर शादी करने और इस दौरान हुए नाटकीय घटनाक्रमों को समेटती है।

विषयवस्तु के नज़रिए से फ़िल्म घिसी-पिटी लग सकती है और नकली मां-बाप बनाने का कारनामा भी देखा-सुना लग सकता है, मगर मनोज कलवानी लिखित 14 फेरे को दूसरी फ़िल्मों से जो बात अलग करती है, वो एक ही जोड़े की दो बार शादी रचाने वाला विचार ही है।

इन दो शादियों की वजह से दोनों मुख्य किरदारों और इनके परिवारों के बीच जो दिलचस्प घटनाक्रम शुरू होते हैं, वो इस गंभीर बात कहने वाली कहानी को हल्का-पुल्का और हास्यपूर्ण बनाते हैं। संवादों को व्यवहारिक रखा गया है। विषय गंभीर होते हुए भी फ़िल्म उपदेश नहीं देती। बड़ी-बड़ी बातें नहीं करती। अहम बात यह है कि हास्य, संवादों के बजाए हालात से निकलता है।

फ़िल्म दोनों मुख्य किरदारों के बीच रोमांस के दृश्य या गाने दिखाने में वक़्त बर्बाद नहीं करती। सीधे मुद्दे पर आती है और एक बार जो रफ़्तार पकड़ती है तो भागती जाती है। इस बीच जो घटनाक्रम होते हैं, वो दर्शक को गुदगुदाते रहते हैं। इस रोमांटिक-कॉमेडी फ़िल्म का क्लाइमैक्स प्रैडिक्टेबल तो है, मगर दृश्य जिस तरह के मोड़ लेते हैं, उससे अंत तक रोमांच बना रहता है।

हसीन दिलरूबा के बाद विक्रांस मैसी एक बार फिर ज़बरदस्त फॉर्म में नज़र आए हैं। उस फ़िल्म में विक्रांत ने शादी करके पापड़ बेले थे, इस फ़िल्म में शादी करने के लिए पापड़ बेलते दिखे हैं। अदिति बनीं कृति खरबंदा अपने किरदार में जंची हैं।

फ़िल्म के कॉमिक दृश्यों को असरदार बनाने में जमील ख़ान और गौहर ख़ान ने बराबर का योगदान दिया है। इन दोनों पर ज़िम्मेदारी इसलिए भी ज़्यादा आ गयी, क्योंकि इन्हें राजस्थानी और बिहारी माता-पिता के किरदार निभाने थे, जिसके लिए संवाद अदाएगी में भाषा और उच्चारण पर नियंत्रण होना बहुत ज़रूरी था, जिसमें जमील और गौहर ने निराश नहीं किया।

हसीन दिलरूबा के बाद यामिनी दास एक बार फिर विक्रांत की ऑनस्क्रीन मां बनी हैं, मगर इस बार उनका किरदार बिल्कुल अलग है। हसीन दिलरूबा की बातूनी मां इस बार ख़ामोश हो गयी, जिसे उन्होंने बख़ूबी निभाया है। बाक़ी कलाकारों ने भी अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी ठीक से निभायी है। इसका श्रेय निर्देशक देवांशु सिंह को भी जाता है, जिन्होंने कलाकारों को उनके किरदारों के दायरेे से बाहर नहीं निकलने दिया।

फ़िल्म का संगीत ठीक-ठाक है। क्रेडिट रोल्स का गाना थिरकने के लिए मजबूर करता है। सिनेमैटोग्राफी और डिज़ाइन विभाग ने फ़िल्म के दृश्यों की चमक बढ़ाने का काम किया है। 14 फेरे ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए सटीक फ़िल्म है और मनोरंजन के मोर्चे पर निराश नहीं करती।

कलाकार- विक्रांस मैसी, कृति खरबंदा, गौहर ख़ान, जमील ख़ान, विनीत कुमार, सुमित सूरी, मनोज बख्शी, प्रियांशु आदि।

निर्देशक- देवांशु सिंह

निर्माता- ज़ी स्टूडियोज़

अवधि- 151 मिनट

रेटिंग- *** (तीन स्टार)