हर किसी के अंदर कोई न कोई टैलेंट जरूर होता है, चाहे वह पढ़ाई में हो या फिर खेल में। खेलों में अवसर असीमित और ब्राइट फ्यूचर है। इसमें ढेर सारे करियर विकल्प भी हैं। युवा मैदान में एक पेशेवर खिलाड़ी या कोच बनकर या फिर मैदान से बाहर खिलाड़ियों के सहयोगी या खेल प्रबंधन क्षेत्र में करियर बना सकते हैं। टोक्यो ओलिंपिक में भारतीय युवाओं के बेहतर प्रदर्शन के बाद उन्हें केंद्र और राज्य सरकारों से आकर्षक इनाम और नौकरियों तक के आफर किए जा रहे हैं। इससे खेलों में करियर बनाने की चाह रखने वाले किशोरों-युवाओं को और प्रोत्साहन मिलेगा। आइए जानें, खुद को इस दिशा में कैसे आगे बढ़ाएं…
खेल हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। खेल के मैदान में ही हम हार-जीत का सबक लेकर स्वस्थ मानसिकता का विकास कर सकते हैं। हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने योगासनों के महत्व को समझा तथा उसे जीवन में अपनाने की प्रेरणा दी। उपनिषद में लिखा है ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खेल तथा व्यायाम प्रमुख साधन है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि खुले मैदानों में खेलने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इससे मानवीय मूल्यों का विकास होता है। साथ ही, खेलों द्वारा सामूहिक चेतना का भी विकास होता है। इसलिए कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है। दरअसल, खेल हमें खेलने की प्रक्रिया में बहुत कुछ सिखाते हैं, जो हमारे शारीरिक, मानसिक और व्यक्तिगत विकास में एक आवश्यक कारक के रूप में कार्य करता है। यह हमें समय प्रबंधन, नेतृत्व, कान्फिडेंस बिल्डिंग, गलतियों से सीखने, जिम्मेदारी लेने, टीम वर्क, चुनौतीपूर्ण अधिकार और उत्साह व आत्मविश्वास जैसे मूल्यवान गुण सिखाता है। ये खेल के कुछ अमूर्त लाभ हैं, जो किताबों या आभासी गेमिंग उपकरणों में नहीं खोजे जा सकते हैं।
धारणा बदलने की जरूरत: हमारे समाज में खेल को शिक्षा से कमतर दिखाने की सदियों पुरानी धारणा है। अधिकतर माता-पिता मानते हैं कि खेल केवल समय गुजारने का साधन है। हमारी पीढ़ी में इस मानसिकता का परिणाम काफी स्पष्ट है, खासकर ऐसे समय में जब आभासी और मोबाइल गेमिंग उपकरणों ने किसी के जीवन के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है। बच्चे हों या युवा, लगातार मोबाइल पर गेम या वीडियो गेम खेलना आज लोगों की आदत बनती जा रही है। समाज आज भी टापर व गोल्ड मेडलिस्ट को एक खिलाड़ी से ज्यादा महत्त्व देता है, पर यही खिलाड़ी मेडल जीतकर देश को अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिलाते हैं। टापर व गोल्ड मेडलिस्ट पढ़े-लिखे लोगों का दायरा भले ही समंदर जितना हो, लेकिन एक खिलाड़ी भी परिदों से कम नहीं है। किसी शायर ने भी खूब लिखा है कि..’ऐ समंदर तुझे गुमान है अपने कद पर! मैं नन्हा सा परिंदा तेरे ऊपर से गुजर जाता हूं।’ कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, नीरज चोपड़ा, पीटी उषा, मेरी काम, हेमा दास, पीवी सिंधू, सायना नेहवाल, मीराबाई चानू के रूप में एक लंबी सूची है।
ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनका जिक्र आज हम अपने दैनिक जीवन में अक्सर करते हैं। वे कौन हैं? वे न तो आइएएस-पीसीएस हैं, न तो डाक्टर हैं और न ही इंजीनियर या वैज्ञानिक; वे तो सिर्फ खिलाड़ी हैं। हर कोई उनकी सराहना करता है और उनसे प्यार भी करता है, लेकिन हममें से कितने लोग उनके जैसा बनने का साहस जुटा पाते हैं? भारत के संदर्भ में, खेल आमतौर पर क्रिकेट से जुड़ा होता है, जहां ज्यादातर अभिभावक भेड़-चाल चलकर, बच्चों को सचिन बनाने में लगे होते हैं। वे नहीं सोचते कि महाराणा प्रताप के भाले से भी कोई नीरज चोपड़ा बनकर विश्व में छा सकता है। अधिकतर छात्र ऐसा सोचते हैं कि परीक्षा में सर्वोच्च अंक लाने से जीवन में आगे सफलता ही सफलता मिलेगी, जबकि सच्चाई ऐसी नहीं है। आज जब कैंपस प्लेसमेंट्स में बड़ी-बड़ी कंपनियां युवाओं को अपनी कंपनी के लिए चुनने आती हैं, तो कालेज का टापर भी सेलेक्ट नहीं होता है, जिसका सबसे बड़ा कारण है पर्सनैलिटी का ओवरआल विकास न होना जो की सिर्फ और सिर्फ खेलों की मदद से ही हो सकता है।
खेलों से संपूर्ण विकास: खेलों का स्वभाव ही एकजुट होना है। खेल हमारे विकास का एक अभिन्न अंग हैं। खेल सभी के लिए समान है। यह बेटी-बेटे में भेदभाव नहीं करता है। प्रत्येक लिंग को समान मान्यता मिलनी चाहिए, पर समाज में ऐसा नहीं हो रहा। आजाद भारत में इंदिरा गांधी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। फिर 2007 में हमारे देश में प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं। लेकिन क्या हम आज महिलाओं के लिए एक सुरक्षित, समान और सशक्त समाज का दावा कर सकते हैं? कन्यादान को सबसे बड़ा दान माना गया है जिसके बिना स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। उसी समाज का मिजाज कोख में कन्या की जानकारी होते ही आदिम बन जाता है। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है, क्या पता उसमें कोई सुषमा स्वराज, कोई लता मंगेशकर, कोई किरण बेदी, कोई सायना नेहवाल और कोई पीवी सिंधू होती, तो कोई मीराबाई चानू हो सकती थी। किसी कवि ने ठीक ही लिखा है- ‘करते रहे गुनाह हम, केवल बेटे के शौक में, कितने मेडल मार दिए, जीते जी कोख में।’ इसीलिए ‘बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ’ से आगे बढ़कर ‘बेटी खेलाओ’ की दिशा में आगे बढ़ना होगा।
खेलों में भी ब्राइट फ्यूचर: हमें यह समझना चाहिए कि सबके अंदर कोई न कोई टैलेंट जरूर होता है, चाहे वह पढ़ाई में हो या फिर खेल। खेल बाजार विशाल है और इसमें अवसर असीमित हैं। खेलों में भी ब्राइट फ्यूचर है और ढेर सारे करियर विकल्प भी, युवा आन-फील्ड एक पेशेवर खिलाड़ी या कोच बनकर और आफ-फील्ड खेल प्रबंधन क्षेत्र में करियर बना सकते हैं, जैसे स्पोर्ट्स टीचर, स्पोर्ट्स कोच, स्पोर्ट्स जर्नलिज्म, स्पोर्ट्स मैनेजमेंट, स्पोर्ट्स इंजीनियरिंग, स्पोर्ट्स साइंस, स्पोर्ट्स मार्केटिंग, स्पोर्ट्स स्पांसरशिप, स्पोर्ट्स टूरिज्म, स्पोर्ट्स ब्राडकास्टिंग, फैन डेवलपमेंट, इवेंट एंड वेन्यू मैनेजमेंट, स्पोर्ट्स साइकोलाजी, स्पोर्ट्स पीआर, फिटनेस एक्सपर्ट इत्यादि। यदि किसी व्यक्ित की विश्लेषणात्मक मानसिकता है, तो वह स्पोर्ट्स एनालिटिक्स में भी शामिल हो सकता है।
युवा कई रूपों में खेल में योगदान कर सकते हैं। स्पोर्ट्स अथारिटी आफ इंडिया भी खिलाडियों के लिए हर संभव मदद करता है। आज सरकारी व निजी दोनों क्षेत्रों में खिलाड़ियों के लिये नौकरियां पाने के कई अवसर है। रेलवे, एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम, ओएनजीसी, आइओसी जैसी सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ टाटा अकादमी, जिंदल ग्रुप जैसे निजी समूह भी खेलों व खिलाड़ियों के विकास के साथ-साथ उन्हें बेहतर मंच व अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। प्रतिभाएं कहीं से भी निकल सकती हैं। हमारे देश में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में कई छिपी हुई प्रतिभाएं हैं, जिन्हें यदि एक मंच और प्रशिक्षण प्रदान किया जाए, तो वे ओलिंपिक, राष्ट्रमंडल आदि जैसे विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के आयोजनों में भारत को गौरवान्वित कर सकते हैं। समय की आवश्यकता है कि एक खेल संस्कृति का निर्माण किया जाए। यथार्थ में खेलकूद आदि के लिए विशेष सुविधाएं रहेंगी तो प्रतिभासंपन्न हमारे देश में न जाने कितने रिकार्ड्स तोड़ने वाले खिलाड़ी मिलेंगे और न जाने कितने मेडल। खेल लोगों के जीवन का एक सामान्य और बुनियादी हिस्सा बन जाना चाहिए, खेलों की जीवंतता केवल राज्य/राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय खेलों में भागीदारी तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह इतनी मौलिक हो जानी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति युवा या वयस्क विभिन्न खेलों में तल्लीन हो जाए।
कोविड काल का सदुपयोग: युवा कोविड के इस अशांत समय को एक सीखने योग्य क्षण के रूप में उपयोग करें, क्योंकि भारत का युवा भारतीय खेलों का भविष्य है। भारत के 2025 तक दुनिया का सबसे युवा देश बनने का अनुमान है, जिसमें 62 फीसद आबादी युवा होगी। युवाओं को सोचना होगा कि वे कैसे सकारात्मक बदलाव में योगदान दे सकते हैं? हम जैसे-जैसे बड़े होते गए, हमने अपने अंदर के उस खिलाड़ी को खो दिया है। वास्तव में खेलकूद जीवन में सफलता के लिए शिक्षा जितने ही महत्वपूर्ण हैं। खेल-कूद एक क्षेत्र के रूप में, देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान कर सकते हैं। इसका समाधान खेलों के प्रति मानसिकता को बदलना है। यह समाज से शुरू होता है और सरकार तक जाता है।
केपीएमजी के अनुसार, खेल उद्योग का वैश्विक बाजार 500-600 अरब अमेरिकी डालर है। हालांकि, अभी इसमें भारत का योगदान काफी कम है। पदक, आखिरकार, रातोंरात नहीं जीते जाते हैं। कोई भी एथलीट या खिलाड़ी अपने परिवार के समर्थन और अपने राष्ट्रों के समर्थन के बिना सफल नहीं हो सकता है। कई चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, युवा खेल सितारे अपने खेल के प्रति अपने जुनून को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष करते हैं। कई बार हम सिर्फ बहाने करके कोई कदम नहीं उठाते, शुरुआत में हर क्षेत्र में समस्या होती है, चाहे नौकरी हो या खेल। हेमा दास व मीराबाई चानू के संघर्ष को देखें तो ये कह सकते हैं कि ‘बहाने के आगे जीत है’।