मतदाता होने के नाते जनता की जिम्मेदारी, ईमानदार और कर्मठ उम्मीदवार को अपना जनप्रतिनिधि चुने

सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के बावजूद राजनीति में दागियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह स्थिति संसदीय लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। सर्वोच्च अदालत में दायर एक याचिका से सामने आया है कि पिछले पांच महीनों में ही माननीयों पर 417 नए आपराधिक मामले दर्ज हुए हैं। मार्च, 2020 तक माननीयों पर कुल आपराधिक मुकदमों की संख्या 4,442 थी, जो अब बढ़कर 4,859 हो गई। आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2014 में दागी सांसदों की संख्या 34 फीसद थी, जो 2019 में बढ़कर 46 फीसद हो गई।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 542 सांसदों में से 233 यानी 43 फीसद सांसद दागी छवि के हैं। इन सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। हलफनामों के हिसाब से 159 यानी 29 फीसद सांसदों के खिलाफ हत्या, दुष्कर्म और अपहरण जैसे संगीन मुकदमे लंबित हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक पूर्व एवं मौजूदा सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ उप्र में लंबित मुकदमे सबसे अधिक हैं। यह संख्या 1374 है। इसी तरह बिहार में 557 मुकदमे लंबित हैं। आंकड़ों के मुताबिक सबसे अधिक दागी सांसद उप्र, बिहार और बंगाल से चुनकर आए हैं।

सर्वोच्च अदालत ने दागी माननीयों पर लगाम लगाने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को ताकीद किया था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए, क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि संविधान के संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे, लेकिन अदालत की इस नसीहत का कोई असर नहीं दिखा। राजनीतिक दलों द्वारा भी सार्वजनिक मंचों से दावा किया जाता है कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है, लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने की बारी आती है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं। दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही अधिक गारंटी है।
गौर करें तो पिछले कुछ दशकों में इस राजनीतिक मनोवृत्ति को बढ़ावा मिला है, लेकिन विचार करें तो इस स्थिति के लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसमें देश की जनता भी बराबर की कसूरवार है। जब जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाय जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रूप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे ही। नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवार को अपना जनप्रतिनिधि चुने।