कांग्रेस भी अब राज्यों में सामाजिक संतुलन पर लगा रही दांव, जानिए क्यों छिटके वोट बैंक को वापस लाना नहीं है आसान

चुनावी राजनीति में जातीय समीकरणों के लगातार मजबूत हुए चक्रव्यूह से बढ़ी चुनौतियां कांग्रेस को भी अब राज्यों में सामाजिक संतुलन की सियासत पर फोकस करने के लिए बाध्य करने लगी हैं। राजनीतिक पार्टियों की चुनावी सफलता में ठोस आधार वोट बैंक की निर्णायक भूमिका को देखते हुए कांग्रेस को भी लगने लगा है कि राज्यों में सामाजिक संतुलन की सियासत के बिना अपने छिटके वोट बैंक को वापस लाना आसान नहीं है। इस हकीकत का यह अहसास ही है कि पंजाब से लेकर तेलंगाना और झारखंड से लेकर महाराष्ट्र तक के संगठनात्मक बदलावों में पार्टी इन सूबों के सामाजिक संतुलन की सियासत में अपनी पैठ बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है।

पंजाब में अनुसूचित जाति के चेहरे चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का कांग्रेस का फैसला बेशक बड़ा सियासी दांव है। इसकी चर्चा अधिक है क्योंकि पार्टी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे अपने दिग्गज को मुख्यमंत्री पद से हटाया है। लेकिन राज्यों में अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने की यह गंभीर कोशिश कांग्रेस ने करीब छह महीने पहले महाराष्ट्र में नाना पटोले को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के साथ शुरू कर दी थी। महाराष्ट्र में मराठा, दलित और मुस्लिम वर्ग परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे हैं। लेकिन बीते एक दशक के दौरान राकांपा और भाजपा ने भी मराठा वर्ग में अपनी पैठ बढ़ा ली है और कुछ यही हाल दलित वोट बैंक का भी है। इसलिए कांग्रेस ने अपने परंपरागत वोट बैंक के खिसके आधार की भरपाई के लिए ओबीसी वर्ग पर नजर लगाई है। इसी रणनीति के तहत ओबीसी नेता पटोले को संगठन की जिम्मेदारी सौंपी गई है।

सत्ता की होड़ में शामिल होना भी है मुश्किल

हाल के असम और केरल समेत पांच राज्यों के चुनाव में पार्टी के कमजोर प्रदर्शन के बाद अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने की इस कोशिश को कांग्रेस ने कुछ और गति दी है। झारखंड में जहां सभी प्रमुख पार्टियां आदिवासी वर्ग को साधने की सियासत करती हैं, वहां पिछले दिनों कांग्रेस ने अगड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले राजेश कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। आदिवासी समुदाय के बीच झामुमो और भाजपा की पकड़ के बीच कांग्रेस के लिए फिलहाल इस वर्ग में पैठ बनाने की एक सीमा है। तभी पार्टी ने सूबे में अगड़ों को साधने का प्रयास शुरू किया है। दरअसल पिछले कुछ वर्षो के दौरान राज्यों में हुए चुनाव का निष्कर्ष साफ है कि जिस किसी दल के पास 10 से 12 फीसद ठोस आधार वोट बैंक नहीं है, उसके लिए सत्ता की होड़ में शामिल होना भी मुश्किल है।

केरल की चुनावी हार कांग्रेस के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी और इसमें उसके परंपरागत सामाजिक आधार में बिखराव भी एक कारण रहा। इसलिए पार्टी ने जहां पुराने दिग्गजों को हटाकर संगठन का चेहरा और पूरा ढांचा बदला, वहीं अपने सामाजिक आधार को साधे रखने की पूरी कोशिश करती भी दिखी है।

चुनावी मैदान में उतरने की रूपरेखा पर आगे बढ़ रही कांग्रेस

तेलंगाना में रेवंत रेड्डी को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाना भी इसी रणनीति का हिस्सा नजर आ रहा है। टीआरएस मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के वेलमा समुदाय, ओबीसी, दलितों और मुसलमानों के सहारे तेलंगाना की सियासत पर मजबूती से हावी है। भाजपा सूबे में ओबीसी को साधकर अपनी सियासत आगे बढ़ा रही है। ऐसे में कांग्रेस ने प्रभावशाली रेड्डी समुदाय को अपना मजबूत सियासी आधार बनाए रखने की रणनीति को जारी रखा है। बेशक रेवंत रेड्डी से पूर्व तेलंगाना कांग्रेस के अध्यक्ष रहे उत्तम कुमार रेड्डी भी इसी वर्ग से थे, मगर उनकी कमजोर सियासी अपील के चलते पार्टी अपने आधार को नहीं बढ़ा पाई। राज्यों के संगठन में हो रहे इन बदलावों से साफ है कि एक न्यूनतम आधार वोट बैंक के स्कोर के साथ चुनावी मैदान में उतरने की रूपरेखा पर आगे बढ़ रही कांग्रेस का सियासी आपरेशन केवल पंजाब में हुए परिवर्तन तक ही सीमित नहीं रहेगा। कांग्रेस अब गुजरात और बिहार के संगठन में बड़े फेरबदल को सिरे चढ़ाने की अंदरूनी कसरत में जुटी है और इनमें भी सामाजिक संतुलन को साधने की सियासत को तवज्जो दी जाएगी।