सक्सेस मंत्रा: ‘सामाजिक उद्यमिता’ है देश का भविष्य, जानें- क्या कहना है नया प्रयोग करने वाले प्रियांक का

पांच वर्ष आइटी सेक्टर का कार्यानुभव लेने के बाद भिलाई के प्रियांक पटेल ने सामाजिक उद्यमिता के क्षेत्र में नया प्रयोग करने का निर्णय लिया और शुरुआत हुई ‘नुक्कड़’ टी-कैफे की। बीते वर्षों में ये चार कैफे शुरू कर चुके हैं, जिनमें 75 से 80 प्रतिशत कर्मचारी दिव्यांग व ट्रांसजेंडर समुदाय से हैं। इस तरह, छत्तीसगढ़ में इन्होंने नये प्रयोगों के जरिये एक मिसाल कायम की है। थर्ड जेंडर एवं दिव्यांगों को नौकरी देने वाले इस कैफे को हाल ही में (विश्व दिव्यांगता दिवस पर) सर्वश्रेष्ठ नियोक्ता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। राष्ट्रपति महामहिम राम नाथ कोविन्द के हाथों से पुरस्कार ग्रहण करने के वाले प्रियांक के अनुसार, सोशल एंटरप्राइज ही भविष्य है देश का। बीते आठ वर्षों से जिस प्रकार वह मूक बधिर, थर्ड जेंडर एवं बौद्धिक रूप से दिव्यांग युवाओं को प्रशिक्षण एवं रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं, उससे काफी संतुष्टि मिली है और वही आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। यह सम्मान उनका सम्मान है।

प्रियांक के माता-पिता दोनों सरकारी नौकरी में थे। इन्होंने 2007 में भिलाई के शंकराचार्य कालेज आफ इंजीनियरिंग से इलेक्ट्रानिक्स एवं टेलिकम्युनिकेशन में इंजीनियरिंग की। कैंपस सेलेक्शन के बाद कुछ समय दिल्ली स्थित टेक महिंद्रा में नौकरी करना हुआ। वहां से पुणे गए। करीब पांच साल आइटी सेक्टर की अलग-अलग कंपनियों में काम किया। लेकिन कहीं न कहीं एक डिस्कनेक्ट-सा महसूस होता था कि जो करना चाहते हैं, वह नहीं कर पा रहे। बताते हैं प्रियांक, ‘वर्ष 2011 के आसपास आइसीआइसीआइ फाउंडेशन के ‘यंग इंडिया फेलोशिप प्रोग्राम’ करने का अवसर मिला। इन प्रोजेक्ट्स में अलग-अलग प्रदेशों व गांवों में स्थित स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर काम करना होता था। इस दौरान 16 महीनों में गुजरात, ओडिसा, राजस्थान के गांवों में काम करना एक मायने में जीवन का टर्निंग प्वाइंट रहा। मैं ग्रामीण अर्थव्यस्था को करीब से जान सका कि वह कैसे काम करती है। युवाओं से संपर्क कहां टूट जाता है। इस एक्सपोजर के बाद ही कुछ अपना करने की एक रूपरेखा बननी शुरू हुई।’

नुक्कड़’ टी कैफे की पड़ी नींव

प्रियांक ने बताया कि प्रोजेक्ट खत्म होने के बाद उनके सामने दो रास्ते थे, आइटी सेक्टर में वापस लौट जाना या कुछ नया करना। पहले उन्होंने पुणे में दोस्तों के साथ मिलकर ‘जज्बा’ नाम से एक स्वयंसेवी संस्था शुरू की, जो शहीदों के परिवारों के लिए काम करती थी। हालांकि कुछ समय बाद वह बंद हो गई और वह वापस घर लौट गए। सब चिंतित और हैरान थे कि क्यों नौकरी छोड़ दी। बाकी काम भी बंद कर दिए। प्रियांक कहते हैं, ‘एक दिन मैंने मुंबई स्थित ‘मिरैकल’ कूरियर के संस्थापक की कहानी पढ़ी कि कैसे वे मूक-बधिर युवाओं के साथ एक लाजिस्टिक कंपनी चला रहे हैं। मैंने भी सोचा कि अगर दिव्यांगों और मुख्यधारा के बीच की खाई को कम करना है, तो उनके साथ संवाद बनाना होगा। तभी ‘नुक्कड़ टी-कैफे’ का आइडिया आया और मैंने अपनी निजी बचत, दोस्तों व पैरेंट्स के आर्थिक सहयोग से 2013 में रायपुर में 400 वर्ग फीट में इस टी-कैफे की शुरुआत की।’

छत्तीसगढ़ में अपनी तरह का पहला प्रयोग

हरेक माता-पिता की तरह प्रियांक के पैरेंट्स संशय में थे कि पता नहीं बेटा कारोबार में क्या करेगा, क्योंकि परिवार की कोई कारोबारी पृष्ठभूमि नहीं थी। इसके अलावा, वह एक नये शहर रायपुर में कारोबार करने जा रहे थे तो सब डरे हुए थे। यही कारण रहा कि वे पहले कैफे के उद्घाटन पर भी नहीं आए। एक साल के बाद ही सब ठीक हो सका। प्रियांक बताते हैं कि रायपुर चुनने की खास वजह रही। राजधानी होने के बावजूद वहां माइग्रेंट फ्रेंडली वातावरण था। हालांकि, हमारे पास हास्पिटैलिटी इंडस्ट्री का कोई अनुभव नहीं था। राज्य में यह पहला प्रयोग था। लेकिन निश्चय कर चुका था। सबसे पहले दो मूक-बधिर बच्चों को नियुक्त किया। टी-कैफे में साइन लैंग्वेज के पोस्टर्स लगवाए। ग्राहकों को मेन्यू रजिस्टर के साथ एक कागज-कलम भी देते थे, जिससे कि वे लिखकर अपना आर्डर दे सकें। शुरू में थोड़ा डर था कि समाज में इसकी स्वीकार्यता होगी कि नहीं। लेकिन जब लोगों से सराहना मिली, तो आत्मविश्वास बढ़ा। एक सकारात्मक संदेश गया समाज में। हमने अलग से कोई विज्ञापन या प्रमोशन नहीं किया।

दिव्यांग युवाओं और उनके परिजनों को मनाने की रही चुनौती

प्रियांक के अनुसार, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक मान्यताओं को तोड़ने की रही, क्योंकि समाज में नये तरीके की चीजों या प्रयोगों को स्वीकार्यता जल्दी नहीं मिलती। दूसरी चुनौती दिव्यांग कर्मियों को चिह्नित कर, उन्हें खुद से जोड़ने की रही। हमारी कोशिश थी कि सभी स्वेच्छा से जुड़ें। हमने उन्हें अनुभवों के जरिये ही सीखने का अवसर दिया यानी पहले दिन से ही काम के साथ सीखने की शुरुआत हो जाती है। इसके अलावा, ट्रेनिंग के दौरान सभी को गलती करने की आजादी मिलती है। वहीं, ट्रांसजेंडर्स को कनविंस करने में भी वक्त लगा। कई दौर की बातचीत के बाद करीब छह महीने में दो एम्प्लायी मिले। डाउन सिंड्रोम कम्युनिटी के साथ भी ऐसे ही अनुभव रहे। उनके परिजनों को समझाने में वक्त लगा, क्योंकि बच्चों के साथ बदतमीजी होने के कारण वे थोड़े प्रोटेक्टिव होते हैं। हालांकि, अपने चौथे कैफे में मैंने मूक-बधिर, ट्रांसजेंडर के साथ डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त कर्मियों को भी मौका दिया है। कोशिश है समावेशीकरण (सोशल इंक्लूजन) को प्रोत्साहन देने की।

मेहनत से बढ़ रहे हैं आगे

कहते हैं कि जो उद्यमी लगातार इनोवेशन या प्रयोग करते रहते हैं, उनकी सफलता का दर कहीं अधिक होता है। प्रियांक ने भी हमेशा प्रयोगों को महत्ता दी। वह कहते हैं, ‘मैं युवाओं से यही कहना चाहूंगा कि जो कर रहे हैं, उससे लगातार बेहतर करने की कोशिश करें। सीखने की प्रक्रिया को कभी न रोकें। हमारा यही मंत्र है कि खुद को लगातार बेहतर करते जाना है। इससे आपका पैशन हमेशा जिंदा रहेगा। जब शुरुआत की थी तो अंदाजा नहीं था कि हम यहां तक पहुंच पाएंगे। लेकिन कोशिश की, जो सफल रही। हमारे टी-कैफे में कोई किसी के लिए चैरिटी या सेवा नहीं करता। सभी अपनी मेहनत और काबिलियत का फल पा रहे हैं।’