देशभर के स्कूलों में एक समान पाठ्यक्रम की कवायद समय की मांग

किसी भी देश की प्रगति के आधारभूत कारकों में शिक्षा एक प्रमुख कारक है। शिक्षा के मामले में बड़ी लकीर खींच कर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बढ़त ली जा सकती है, लेकिन यह काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपके पाठ्यक्रम की दशा और दिशा उचित हो। इस संदर्भ में भारत की बात करें तो हाल ही में शिक्षा मंत्रलय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने संसद में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कुछ सुझाव दिए हैं। समिति ने सीबीएसई, आइसीएसई तथा विभिन्न राज्यों के शिक्षा बोर्डो के विद्यालयों में एक समान पाठ्यक्रम लागू करने का सुझाव दिया है।

समिति का मत है कि इससे विद्यालयी शिक्षा में एकरूपता आएगी तथा पूरे देश की शिक्षा का एक मानक तय हो सकेगा। चूंकि बीते वर्ष लगभग साढ़े तीन दशक बाद देश को नई शिक्षा नीति मिली है, जिसके माध्यम से भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार के कई मार्ग खुलते दिखाई दे रहे हैं, अत: यह सही समय है कि संसदीय समिति के उक्त सुझाव पर गौर करते हुए ‘एक देश एक पाठ्यक्रम’ की व्यवस्था को अपनाने पर विचार किया जाए।

देश में एक समान पाठ्यक्रम की बहस नई नहीं है। पहले भी कई स्तरों पर यह विषय उठता रहा है और इस पर चर्चा होती रही है। बीते वर्ष अश्विनी उपाध्याय द्वारा छह से 14 साल की आयु के सभी बच्चों के लिए समान पाठ्यक्रम वाली एक समान शिक्षा प्रणाली लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिका में विभिन्न शिक्षा बोर्डो का विलय करके देश में ‘एक राष्ट्र एक शिक्षा बोर्ड’ स्थापित करने की संभावना तलाश करने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। हालांकि तब न्यायालय ने इस याचिका पर विचार करने से इन्कार करते हुए कहा था, ‘आप न्यायालय से कैसे अनुरोध कर सकते हैं कि वह एक बोर्ड का दूसरे में विलय कर दे। ये न्यायालय के काम नहीं हैं।’ चूंकि यह एक नीतिगत विषय है, अत: न्यायालय का इसमें हस्तक्षेप नहीं करना उचित ही था, लेकिन अब जब संसदीय समिति ने समान पाठ्यक्रम का सुझाव सदन में रखा है, तो देश के नीति-निर्माताओंको इस पर ध्यान देना चाहिए।

भारत के वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य को देखते हुए पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम की बात उचित और कई प्रकार से लाभप्रद ही प्रतीत होती है। यह व्यवस्था अपनाने से देश के शिक्षा तंत्र में व्याप्त बहुत-सी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है। समान पाठ्यक्रम का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि भिन्न-भिन्न बोर्डो के भिन्न पाठ्यक्रमों के कारण छात्रों के बीच जो बौद्धिक असमानता देखने को मिलती है, उसमें कमी आएगी। हालांकि इसके बाद भी अलग-अलग बोर्डो के विद्यालयों में शिक्षकों की योग्यता, ढांचागत सुविधाओं आदि का अंतर बना रहेगा, बावजूद इसके समान पाठ्यक्रम ज्ञान प्राप्ति के समान अवसर की अवधारणा को साकार करने की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।

समान पाठ्यक्रम का दूसरा बड़ा लाभ यह है कि इससे शिक्षा को राजनीति का उपकरण बनने से भी एक हद तक रोका जा सकता है। इतिहास संबंधी पाठ्यक्रम बहुधा राजनीति का शिकार होते हैं। हम अक्सर देखते हैं कि भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रमों में किस तरह की भ्रांतियां फैली हुई हैं। इतिहास में हुई एक ही घटना का प्रस्तुतिकरण भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न तरीके से मिल जाता है। कई बार तो सरकारें अपने राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से इतिहास निर्धारित करने लगती हैं। इस विषय में राजस्थान का उदाहरण दिया जा सकता है, जहां दसवीं के इतिहास में यह पढ़ाया जाता था कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना जीती थी, लेकिन वर्ष 2013 में राज्य की सत्ता में भाजपा के आने के बाद 2017 में उसने पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए स्पष्ट किया था कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर पर महाराणा प्रताप की विजय हुई थी। फिर वर्ष 2018 के चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई और सरकार में आने के बाद कांग्रेस ने हल्दीघाटी युद्ध के इतिहास से जुड़े महाराणा प्रताप के संघर्ष, चेतक की वीरता जैसे महत्वपूर्ण प्रसंगों को हटा दिया।

ऐसी स्थिति में छात्र देश का सही इतिहास कैसे जान पाएंगे? राज्य सरकारों द्वारा मनमाने ढंग से पाठ्यक्रम निर्धारित करने के कारण शिक्षातंत्र का यह महत्वपूर्ण अवयव संकीर्ण राजनीति का शिकार हो रहा है, जिसे रोकने का मार्ग कहीं न कहीं समान पाठ्यक्रम से ही निकल सकता है। इसके अलावा जैसा कि संसदीय समिति ने अपने प्रस्ताव में पाठ्यक्रमों में प्राचीन भारत के योगदान को रेखांकित करने की बात कही है, उसे मूर्त रूप देने के लिए भी समान पाठ्यक्रम जरूरी है।

भारत विविधताओं का देश है, अत: पूरे देश में एक पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय बहुत सतर्कता रखनी होगी। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसमें देश की क्षेत्रीय विविधताओं का ध्यान रखा जाए तथा सबकी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सम्मान का भाव हो। यह कार्य सरल नहीं है। सरकार चाहे तो पाठ्यक्रम से संबंधित एक केंद्रीय आयोग बना सकती है, जो राज्यों से संवाद और समन्वय के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा समान पाठ्यक्रम तैयार कर सकती है। संभव है कि इस कार्य में कुछ राज्य सरकारों द्वारा अनावश्यक अवरोध पैदा करने का प्रयास किया जाए, लेकिन चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, अत: विवाद की स्थिति में केंद्र सरकार यानी आयोग का निर्णय ही मान्य होगा। चाहे जैसे किया जाए, लेकिन अब देश की आशाओं-आकांक्षाओं के अनुरूप, राष्ट्रीयता की भावना से पुष्ट और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम का निर्माण समय की आवश्यकता है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अब तक कई बड़े, ऐतिहासिक और साहसिक निर्णय लिए हैं, अत: उम्मीद कर सकते हैं कि यह सरकार इस विषय को भी जरूरी समझते हुए इस पर ध्यान देगी।