नेशनल हेराल्ड मामले का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकला है। कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को ईडी के सामने पेश होने का नोटिस हुआ तो मानो कांग्रेस में भूचाल आ गया। कांग्रेस पार्टी द्वारा देश के अलग-अलग शहरों में प्रेस कांफ्रेंस से लेकर विरोध-प्रदर्शन तक किए जा रहे हैं। हालांकि सोनिया गांधी अस्वस्थता के चलते पेश नहीं हुईं, लेकिन राहुल गांधी पूछताछ के लिए ईडी के सामने पेश हुए हैं।
मगर इससे इतर सवाल है कि क्या नेहरू-इंदिरा परिवार कानून-व्यवस्था से ऊपर है? किसी भी मामले में क्या जांच प्रक्रिया के जो नियम देश में कानूनी तौर पर लागू हैं, वे कांग्रेस पार्टी के ‘परिवार-विशेष’ पर नहीं लागू होते? इस पूरे मामले पर नजर डालें तो सितंबर 1938 में शुरू हुए नेशनल हेराल्ड के दिल्ली संस्करण का प्रकाशन मार्च 2008 तक हुआ। इससे पहले 1995 में कर्मचारियों के वेतन आदि का हवाला देकर इसके लखनऊ संस्करण को बंद किया जा चुका था। वर्ष 2008 में तकनीकी अक्षमता का हवाला देकर इसका दिल्ली संस्करण भी बंद कर दिया गया। इसी के बाद नेशनल हेराल्ड मामले में पैसों का ऐसा घुमावदार मकड़जाल फैला, जिसके घेरे में सीधे तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं उनके बेटे राहुल गांधी आ चुके हैं।
गौर करने वाला तथ्य है कि 2008 में अखबार बंद होने के बाद कांग्रेस ने नेशनल हेराल्ड के प्रकाशक एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड को 90 करोड़ का ब्याजमुक्त कर्ज दिया था। किसी राजनीतिक दल द्वारा किसी निजी कंपनी को कर्ज देना अपनेआप में जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन है। हालांकि मामला यही खत्म नहीं होता। कांग्रेस द्वारा दिए गए ब्याजमुक्त कर्ज के बाद अखबार शुरू नहीं हुआ, बल्कि चार साल बाद 26 अप्रैल, 2012 को अखबार के प्रकाशक एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड का मालिकाना हक यंग इंडिया कंपनी को मात्र 50 लाख रुपये में दे दिया गया। जिस यंग इंडिया को एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड अर्थात नेशनल हेराल्ड का मालिकाना हक दिया गया, उस कंपनी में सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की संयुक्त तौर पर 76 फीसद की हिस्सेदारी थी। बाकी शेष 24 फीसद में आस्कर फर्नाडिस एवं मोतीलाल वोहरा साझीदार थे।
एक और बात है, जो इस पूरे मामले को सवालों के घेरे में लाती है, वह है कि जब मात्र 50 लाख रुपये में सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की अधिकतम हिस्सेदारी वाली यंग इंडिया एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड अर्थात नेशनल हेराल्ड का अधिग्रहण कर रही थी, उस दौरान नेशनल हेराल्ड की परिसंपत्तियां लगभग 1600 करोड़ रुपये के आसपास थीं। एक तरह से देखा जाए तो लगभग 1600 करोड़ रुपये की परिसंपत्तियां महज 50 लाख रुपये में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कंपनी को हासिल हो गईं। यह सौदा अपनेआप में आश्चर्यजनक है। परिणामत: लेन-देन के इस पूरे मसले में दो स्तर पर सवाल उठ रहे हैं।
पहला सवाल तो खुद कांग्रेस पार्टी के ऊपर उठ रहा है। जनप्रतिनिधित्व कानून एवं आयकर विभाग के मुताबिक यह स्पष्ट नियम है कि कोई भी राजनीतिक दल किसी व्यापारिक कारोबार आदि में बिल्कुल भी निवेश नहीं कर सकता है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार का कोई आरोप अगर किसी राजनीतिक दल के ऊपर साबित होता है तो उसकी चंदे में मिली आयकर छूट को रद कर दिया जाएगा। इसका जवाब कांग्रेस को देना चाहिए। दूसरा जो आरोप बनता दिख रहा है वह सीधे तौर पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सवालों के घेरे में खड़ा करता है। स्वाभाविक तौर पर ऐसा लगता है कि कांग्रेस द्वारा सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की कंपनी को लाभ पहुंचाया गया है। सवाल है कि आखिर नब्बे करोड़ रुपये के कर्ज के बावजूद नेशनल हेराल्ड शुरू होने के बजाय बंद क्यों हो गया? 1600 करोड़ रुपये की संपत्तियों वाले समूह को नब्बे करोड़ रुपये कर्ज लेने के बाद मात्र पचास लाख में बिकने की नौबत क्यों आ गई? जिस कंपनी ने 1600 करोड रुपये की संपत्तियों वाले एसोसिएट जर्नल्स को मात्र पचास लाख रुपये में अधिग्रहित किया उस समूह का अधिकतम हिस्सेदार सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी का होना महज इत्तेफाक तो नहीं ही कहा जा सकता है? इन तमाम सवालों के तार आपस में उलझते हुए सिर्फ एक जगह जाकर जुड़ते हैं और वह जुड़ाव नेहरू-इंदिरा परिवार से सीधा नजर आता है।
इस मामले में एक और नेता मोतीलाल वोरा की भूमिका भी कम रोचक नहीं है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। मोतीलाल वोरा का जुड़ाव कांग्रेस के कोष विभाग से गहरा रहा। सौदे के दौरान वे एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड में भी महत्वपूर्ण भूमिका में रहे। वोरा यंग इंडिया में भी एक साझीदार रहे। ऐसे में यहां पूरा मामला अवैध ढंग से एक संपत्ति को दूसरे के नाम से हस्तांतरित करने का भी नजर आता है। फिलहाल इस मामले में कई सवाल हैं, जिनकी सत्यता को न्याय की कसौटी पर कसा जाना है। कांग्रेस शोर-शराबे से इस मामले को राजनीतिक रंग भले दे रही हो, पर यह सच है कि मामला एक ‘परिवार-विशेष’ के निजी हितों के लिए किए अनियमिततापूर्ण आचरण की दुर्लभ मिसाल है। महज एक परिवार के हितों में एक राजनीतिक दल का संलिप्त हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण भी है। उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण एक निजी भ्रष्टाचार के मामले को पार्टी का एजेंडा बनाकर उसे राजनीतिक रंग देना है। कांग्रेस को इससे बचना चाहिए था। मगर उसकी समस्या यह है कि वह ‘परिवार विशेष’ के साए से न तो निकल पा रही है, न ही निकलने की कोशिश करती दिखाई देती है।
एक राजनीतिक दल की भारत के लोकतंत्र में जो भूमिका होनी चाहिए, कांग्रेस उस भूमिका को लेकर लगता है जरा भी गंभीर नहीं है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर आर्थिक अनियमितता को लेकर कोई मामला है तो इसे पार्टी का मामला बना लेना, कांग्रेस की निर्बलता को ही प्रदर्शित करता है। कांग्रेस को सोचना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र में उसकी भूमिका क्या महज एक परिवार के लिए ‘सेफ-गार्ड’ बनकर कठपुतली की तरह नाचने की रह गई है?