भाजपा के उलट हिंदू विरोध पर टिकी दक्षिण की राजनीति:आर्यों से अलग पहचान पर जोर, 55 साल से तमिलनाडु की सत्ता में काबिज

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के साथ हिंदुत्व को सियासी कामयाबी की कुंजी के तौर पर पहचान मिली। इसके बाद विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इसी फॉर्मूले का इस्तेमाल किया। भाजपा की लगातार जीत के बाद इसे सत्ता का सक्सेस मंत्रा मान लिया गया। कांग्रेस भी इसी राह पर चली। हालांकि, उसका रास्ता सॉफ्ट हिंदुत्व का था। पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी अध्यक्ष रहे राहुल गांधी की हिंदू छवि पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

यह तो हुई हिंदुत्व के रास्ते सत्ता तक पहुंचने की बात, लेकिन दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में हिंदुत्व की पैरोकारी से उलट हिंदू विरोध ही सत्ता की कुंजी बना हुआ है। इसे तफसील से समझने से पहले तमिलनाडु में सत्ताधारी पार्टी DMK के दो नेताओं के बयानों पर नजर डालते हैं…

DMK के दो बड़े नेताओं के ये बयान दिखाते हैं कि तमिलनाडु की राजनीति में धर्म और भाषा को लेकर विवाद एक बार फिर गहराने लगा है। दरअसल इसकी शुरुआत 1916 में ही हो गई थी, जब टीएम नायर और पी त्यागराज चेट्टी से द्रविड़ पॉलिटिक्स की शुरुआत की थी। इन दोनों नेताओं ने तमिलनाडु के निवासियों को द्रविड़ मानते हुए उन्हें उत्तर भारत में रहने वाले आर्यों से अलग कहा था।

तमिलनाडु को देश बनाने की मांग कश्मीर से भी पुरानी, पेरियार ने 1939 में मांगा था द्रविड़नाडु
तमिलनाडु में द्रविड़ों के नाम पर पॉलिटिक्स आजादी के पूर्व शुरू हुई थी। 1916 में पहली बार टीएम नायर और पी. त्यागराज चेट्टि ने जस्टिस पार्टी बनाई थी। 1925 में इरोड वेंकट रामास्वामी यानी ईवी रामास्वामी उर्फ पेरियार इस आंदोलन से जुड़े। पेरियार ने ही 1944 में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कड़गम बनाई।

939 में पेरियार ने अलग देश की मांग को लेकर एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। 17 दिसंबर 1939 को अपनी स्पीच में उन्होंने द्रविड़ों के लिए द्रविड़नाडु का नारा दिया। पेरियार आर्य लोगों को आक्रमणकारी बताते थे। साथ ही कहते थे कि ब्राह्मणों के आने से ही तमिल सोसाइटी में विभाजन हुआ। तमिलनाडु को अलग देश बनाने की मुहिम के हर पहलू पर रोशनी डालता

तमिलनाडु में 55 साल सत्ता का फार्मूला द्रविड़ फैक्टर, 234 में 170 सीटों पर असर
तमिलनाडु की 234 विधानसभा सीटों में से करीब 170 सीटों पर द्रविड़ वोटरों का सीधा असर है। राज्य की दो प्रमुख पार्टियां DMK और AIDMK दोनों ही द्रविड़ियन कॉन्सेप्ट को लेकर चलती हैं। पिछली एक सदी में यह फैक्टर कितना मजबूत हो चुका है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले 55 साल से तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति करने वाली पार्टियों DMK और AIADMK की ही सरकार है।

जयललिता की बात नहीं मानी, तो महज एक वोट से अटलजी की सरकार गिर गई
1998 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में केंद्र में NDA की सरकार बनी। गठबंधन में भाजपा के 182 सांसद थे, जबकि 19 सांसदों के साथ AIADMK गठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। जयललिता ने उनके खिलाफ सभी मुकदमे वापस लेने की मांग की। साथ ही तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार बर्खास्त करने को भी कहा। अटल बिहारी वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं हुए, तो जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया। संसद में महज एक वोट से वाजपेयी की सरकार गिर गई।

करुणानिधि ने मनमोहन पर दबाव बनाया, बात नहीं बनी तो समर्थन वापस लिया
2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में UPA की सरकार बनी। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया। अहम मंत्रालयों को लेकर करुणानिधि की DMK ने जमकर निगोशिएसन किया। करुणानिधि के परिवार से जुड़े ए राजा और कनिमोझी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला। UPA के दूसरे कार्यकाल में यही दोनों नेता 2G घोटाले में फंस गए। इसके बाद DMK ने 2013 में सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।​

DMK नेता ए राजा ने मनुस्मृति को शूद्र विरोधी बताया है। उनके बयान से नाराज तमिलनाडु भाजपा ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से शिकायत की। पार्टी ने ए राजा के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग की। राजा ने विल्लुपुरम में एक सरकारी कार्यक्रम में कहा था- मनुस्मृति में शूद्रों का अपमान किया गया और उन्हें समानता, शिक्षा, रोजगार और मंदिरों में प्रवेश से वंचित रखा गया। भाजपा ने कहा- उनका बयान एक समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने वाला है। इस पर लोकसभा में कार्य संचालन के नियम 233A के तहत शिकायत दर्ज कराई गई है।

सरकारी आंकड़ों में तमिलनाडु के द्रविड़ हिंदू, लेकिन राजनीति में ब्राह्मणों का विरोध

भारत सरकार के आंकड़े में द्रविड़ समुदाय को हिंदू कैटेगरी में ही रखा गया है। लेकिन जब बात राजनीति की हो, तो यह वर्ग ब्राह्मणों के विरोध में खड़ा नजर आता है। इस एजेंडे पर चलकर मिली कामयाबी के दम पर द्रविड़ पार्टियां चेन्नई से दिल्ली तक की सियासत में दखल रखती हैं। ऊपर बताए तमाम उदाहरण इसकी मिसाल हैं। हालांकि, हर 10 साल में होने वाली जनगणना में द्रविड़ समुदाय का अलग से जिक्र न होने की वजह से इसकी निश्चित संख्या उपलब्ध नहीं है।