रामायण में सीता का रोल निभाकर हर घर में पसंद की जाने वाली दीपिका चिखलिया टोपीवाला की अरसे बाद गालिब फिल्म आई है। इसमें उन्होंने मुस्लिम महिला शबनम का रोल निभाया है। अब दैनिक भास्कर से बातचीत के दौरान दीपिका ने अपने बुर्का और हिजाब पहनने की फीलिंग से लेकर कई अन्य मुद्दों पर खुलकर बात की और कहा कि मैं मैंने अपनी लाइफ में सीता जी की गरिमा हमेशा मेंटेन रखी है।
आइए देखते हैं बातचीत के प्रमुख अंश-
आपको लेकर सालों से फैंस के दिल-ओ-दिमाग में सीता की छवि बनी हुई है। ऐसे में फिल्म गालिब में शबनम का रोल मिला, तब मन में क्या कोई दुविधा भी रही?
गालिब फिल्म का ऑफर लेकर लेखक-निर्देशक धीरज कुमार मेरे पास आए थे, तब मैंने इस ऑफर को तीन-चार बार एक्सेप्ट नहीं किया, क्योंकि स्टोरी और मुझे मेरा रोल ठीक नहीं लगा था। लेकिन उसके बाद कुछ सुधार के साथ जब कहानी सुनाई, तब लगा कि इसे करना चाहिए, क्योंकि ये एक मां का रोल है और सीता भी एक मां थीं। भले ही शबनम का रोल अगल मजहब का है, उसके कपड़े अलग हैं, लेकिन फीलिंग तो एक मां की ही है। मां तो मां होती है, उसके प्रेम में संदेह या बाधा नहीं होती है। एक सिंगल ट्रैक होता है, वो प्यार और बलिदान का होता है। शबनम ने अपनी जिंदगी बेटे को होनहार बनाने में लगा दिया। शबनम साधारण औरत है। इसके अलावा मुझे कुछ डिफरेंट नहीं लगा। बेसिकली, ये एक मां-बेटे की कहानी है।
अच्छा, रामायण करने के बाद कभी टी-शर्ट और जींस पैंट में भी नहीं दिखाई दीं। ऐसे में शबनम के रोल के लिए जब बुर्का-हिजाब पहना, तब पहली बार की फीलिंग क्या रही?
रामायण करने के फौरन बाद मैंने फिल्म टीपू सुल्तान की थी। इस फिल्म में भी मैंने बुर्का पहना और नमाज भी पढ़ी। मेरा मानना है कि कोई भी मजहब का रोल हो, पर मेरे कैरेक्टर में एक गरिमा होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि मैं स्मोक कर रही हूं, दारू पी रही हूं, छोटे कपड़े पहन रही हूं, बॉडी दिखा रही हूं या अशब्द बोल रही हूं। मैंने सीता जी की गरिमा शबनम कैरेक्टर में भी कायम रखी है और टीपू सुल्तान में भी कायम रखी थी। मैंने सीता जी की गरिमा हमेशा मेंटेन रखी है।
अच्छा, बुर्का सहित पूरा कॉस्ट्यूम पहनने में कितना वक्त जाता था?
बुरखे में ज्यादा वक्त नहीं जाता था, लेकिन हिजाब पहनने में बहुत समय जाता था। वो थोड़ा डिफिकल्ट था। हर शॉट के बाद निकाल देती थी, क्योंकि थोड़ा तकलीफ देता था। उसे पहनने में आराम से 15 से 20 मिनट चला जाता था, क्योंकि हिजाब पहनना न मुझे आता है और न ही वहां कोई ऐसा था, जो पहनने का तरीका बता सकता था। इसलिए उस पहनने में थोड़ी दिक्कत आती थी, बाकी बुर्का पहनने में ज्यादा कोई तकलीफ नहीं थी। वो कैरेक्टर ऐसा था कि मुझे उसमें थोड़ा हेल्दी दिखना था। इसलिए कपड़े भी ऐसे खुले-खुले लिए थे, जिससे भरा-भरा शरीर लगे। ड्रेस डिजाइन ने स्पेशली ऐसा कुर्ता बनाया था, जिसके अंदर कैनवेस हो ताकि वो मोटा लगे। कैनवेस से कपड़ा शरीर से चिपका नहीं होता, बल्कि शरीर को तीन-चार इंच छोड़कर गिरता है। उससे एकदम भरा-भरा शरीर लगता है। शबनम एक साधारण मां है, हमने उसे ज्यादा सुंदर भी दिखाने की कोशिश नहीं की। कई जगहों पर मेकअप का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं किया गया।
अच्छा, रोल निभाते-निभाते क्या हिजाब पहनना आ गया?
नहीं, मुझे अभी भी नहीं आता है और मुझे सीखने की कोशिश भी नहीं करनी है, क्योंकि कैरेक्टर अच्छा था, इसलिए एक बार कर लिया। अगर कोई बहुत बड़ा और अच्छा कैरेक्टर मिल जाए, तब अलग बात है। वैसे मै साड़ी में ही ठीक हूं।
शबनम के कैरेक्टर की और क्या चुनौतियां रहीं?
इस कैरेक्टर में मुझे ये बात ध्यान में रखना था कि उसका पति टेररिस्ट था। इस बात की एक मां को जो शर्मिंदगी होनी चाहिए, वो करना बहुत जरूरी था। फिल्म में वो आखिरी सीन में खुश लगती है। नहीं तो उसे हमेशा एक तरह की शर्मिंदगी महसूस होती है कि मेरे पति को एक गलत डायरेक्शन में लेकर गए। इस कैरेक्टर में वो पकड़कर चलना चुनौतीभरा था, क्योंकि उत्तर प्रदेश और कश्मीर में इसकी शूटिंग करते हुए लगभग साल भर लग गया था। और साल भर तक शबनम के लाइफ की स्टोरी को मैंने अपने अंदर रख रखा था।
कश्मीर में शूटिंग का माहौल कैसा होता था?
इसकी शूटिंग कश्मीर स्थित बदरवा में हुई। आश्चर्य की बात ये है कि मैं हर मंडे को शिव जी के मंदिर में जाती हूं। मैंने फिल्म के राइटर धीरज जी से भी कहा था कि पता नहीं यहां शिव जी का मंदिर है या नहीं। देखिएगा, अगर होगा, तब बताइएगा और आप यकीन नहीं करेंगे कि मुझे हर सोमवार को शिव जी के मंदिर जाने को मिला। इसके साथ ही वहां पर बहुत सारे प्राचीन और मंदिर देखने का मौका मिला। बदरवा में इतने अच्छे से लोग रहते हैं कि वहां पर कोई राइट्स नहीं, कोई हिंदू-मुस्लिम की कोई प्रॉब्ल्म्स नहीं। ऐसा लगा कि हम हिंदुस्तानी के किसी रेगुलर शहर में जाकर शूटिंग कर रहे हैं। वहां की वादियां खूबसूरत हैं, जहां बर्फ और झरना नजर आ रहा है। एक सुंदर शहर है। हम जो कश्मीर के बारे में सुनते हैं, वो आतंक की गंदगी को दिखाता है। लेकिन भगवान की दया से वहां ऐसा कुछ नहीं हुआ। शूटिंग पर जाते समय रास्ते में कोई न कोई मंदिर आता था और वहां पर जाकर मैं माथा टेक कर आती थी। बदरवा में शूट करने का मेरा एक्सपीरियंस बहुत अच्छा रहा।
लंबे समय बाद वापसी कर रही हैं। इसकी वजह क्या रही?
लंबा समय तो नहीं है, पर बोल भी सकते हैं, क्योंकि काफी समय निकल गया है। रामायण तो हमेशा चलता रहा है, वैसे तो लोगों के बीच रही हूं। लेकिन एक्टिविटली काम नहीं किया है। हां, उस समय बच्चे छोटे थे, तो मैंने काम नहीं किया। उसके बाद थोड़े समय से हस्बैंड के बिजनेस में इन्वाल्ड थी। पार्लियामेंट में भी कई साल चला गया। उसके बाद ऑफर आने शुरू हुए, तब हस्बैंड से विचार-विमर्श किया, तो उन्होंने कहा कि अगर काम करना चाहती हो तो जरूर करो। उस हिसाब से मैंने सोचा और फिर शुरू कर दिया।
अभी बच्चियां कितनी बड़ी हो गई हैं?
अभी तो बच्चियां बहुत बड़ी हो गई हैं। एक 25 साल की तो दूसरी 23 साल की हो गई है। दोनों बेटियां अपने पापा के बिजनेस में हाथ बंटाती हैं।
अच्छा, करियर के लिहाज से सीता के रोल को वरदान मानती हैं या अभिशाप कहेंगी?
मैं सीता की भूमिका निभाकर वरदान मानती हूं। मेरे गुरु जलाराम हैं, मैं जिनको बहुत पूजती हूं। उनके नाम के पीछे राम है, वो भी राम भक्त थे। ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं, मुझ पर राम का आशीर्वाद है। उसी वजह से मुझे सीता की भूमिका मिली, क्योंकि मैं हमेशा से चाहती थी कि मैं नामचीन एक्टर बनूं। लेकिन ऐसी हीरोइन नहीं चाहती थी, जहां मुझे देखकर लोग सीटी बजाएं। वो मुझे बहुत गंदा लगता था।
आप आने वाले समय में किन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही हैं?
मैं एक गुजराती वेब शो खोज कर रही हूं। ये कोविड के समय पर बनाया गया है। उसके अलावा मैंने धीरज मिश्रा के साथ फिल्म दीन दयाल में काम किया है। वो इस साल रिलीज हो जाएगी। मैं दीन दयाल में एक एडीटर का रोल प्ले कर रही हूं। ये एक अलग किस्म की भूमिका है। दूसरी, करण राजदान की हिंदुत्व नामक की फिल्म है। ये 9 अक्टूबर को रिलीज होने वाली है। इसमें मैं गुरु मां का रोल निभा रही हूं। ये बहुत पॉजिटिव रोल है। मैं ज्यादातर पॉजिटिव रोल ही करती हूं।