ऋषि सुनक के ब्रिटिश राष्ट्रपति बनते ही भारत ख़ुश तो बहुत है, लेकिन हमारे नेता जो न करें कम है। यहाँ नेताओं के बीच एक अलग ही तरह की या कहें अजीब- सी बहस छिड़ गई है। बहस होनी चाहिए। हर हाल में होनी चाहिए। लेकिन कारगर। रचनात्मक। जिससे किसी का भला हो सके या वह किसी के काम आ सके। नेता ज़्यादातर ऐसी बहस करने में लग जाते हैं जिसका कोई मतलब ही नहीं होता।
ताज़ा बहस छेड़ी है कश्मीर की नेता महबूबा मुफ़्ती ने। उन्होंने तुक्का फेंका- ब्रिटेन में एक अल्पसंख्यक को प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है। भारत में भी ऐसा संभव है क्या? फिर क्या था। कूद पड़े कई नेता। भाजपा के रविशंकर प्रसाद ने कहा- आप जम्मू-कश्मीर में किसी अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री बनवाना पसंद करेंगी क्या? सब जानते हैं कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं।
ख़ैर, यह क्या बहस हुई। जिन्होंने हम पर दो सौ साल से ज़्यादा समय तक राज किया उन अंग्रेजों के देश में भारतीय मूल का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री बन रहा है। वह भी इतनी कम उम्र में। हमें तो ख़ुश होना चाहिए। बिना सिर- पैर की बहस में जुट जाने का क्या मतलब?
जहां तक महबूबा मुफ़्ती की बात है, उसके कई जवाब हैं। भारत में प्रधानमंत्री तो छोड़िए, राष्ट्रपति भी अल्पसंख्यक समुदाय से बन चुके हैं। डॉ. ज़ाकिर हुसैन हमारे उपराष्ट्रपति भी रहे और राष्ट्रपति भी। यही नहीं, वे भारत रत्न की उपाधि से भी नवाज़े गए थे। पद पर रहते हुए जब उनका निधन हो गया तो कुछ दिन तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे। बाद में कार्यवाहक राष्ट्रपति की गद्दी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने भी सँभाली। बाद में फखरुद्दीन अली अहमद राष्ट्रपति रहे। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति रहे। पूरा देश एक दूरदृष्टा के रूप में कलाम साहब को जानता है।