एक्टर प्रतीक गांधी हाल ही में सेंसिटिव सब्जेक्ट पर बनी फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ में नजर आए थे। रियल लाइफ में डॉक्टर बनने का सपना देखने वाले प्रतीक इस फिल्म में मेडिकल स्टोर संभालते दिखाई दिए। हाल ही में दैनिक भास्कर से खास बातचीत में प्रतीक ने दीपावली से लेकर अपनी अपकमिंग फिल्मों के बारे में बात की। आइए देखते हैं बातचीत के प्रमुख अंश :-
आपकी हालिया रिलीज फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ के लिए किस तरह का रिएक्शन मिल रहा है?
अब तक जितने लोगों ने ये फिल्म देखी है, उनसे मिक्स रिएक्शन ही मिल रहे हैं। लोगों को ये सब्जेक्ट पसंद आया है, क्योंकि ये सब्जेक्ट हमारी जिंदगी का हिस्सा है। फिर भी लोग इस बारे में बात करने से कतराते हैं।
सेंसेटिव सब्जेक्ट पर फीमेल डायरेक्टर के डायरेक्शन में काम करते हुए किस तरह से सहज रहे?
वैसे सारिका जी की ये पहली फिल्म है। वो बहुत सुलझी हुई हैं। इस सब्जेक्ट पर उन्होंने काफी समय बिताया है। इसके लेखन में वो खुद राइटर निर्मल के साथ इन्वाल्व रहीं। चूंकि उन्होंने स्क्रिप्ट पर काफी समय बिताया था। इस सब्जेक्ट पर वैसे भी ज्यादा बात होती नहीं है, ऐसे में एक महिला इस फिल्म को डायरेक्ट करती हैं, तब वो और सावधान इसलिए रहती हैं कि ताकि ऐसे सब्जेक्ट को लोगों तक पहुंचाया जाए न कि इसका मजाक बनाया जाए।
सुना है कि आप रियल लाइफ में डॉक्टर बनना चाहते थे। इस फिल्म में आप मेडिकल स्टोर संभालते नजर आए। इससे क्या आपको लगता है कि डॉक्टर बनने का सपना कुछ हद तक पूरा हुआ?
जब मैं पढ़ाई कर रहा था, तब मैंने 12वीं में साइंस लिया था। उसमें दो ऑप्शन थे- एक डॉक्टर और दूसरा इंजीनियर। इन्हीं दो को मेन स्ट्रीम माना जाता था। चूंकि मैं शिक्षक फैमिली से आता हूं तो हमारे यहां माना जाता है कि आर्ट लाइफ का पार्ट हो सकता है, पर पढ़ाई तो करनी ही करनी है। उस समय मेरी बहुत इच्छा थी कि डॉक्टर बनूं। मेरे जितने भी दोस्त थे, उसमें से 60 से 70 परसेंट डॉक्टर ही बने हैं और बाकी के सब इंजीनियर हैं। मुझे भी मेडिकल में जाना था, पर वो हो नहीं पाया। मेरी दूसरी इच्छा थी कि मैकेनिकल इंजीनियरिंग करूं, फाइनली यही कर पाया। खैर, रियल में नहीं तो पर्दे पर ही सही, डॉक्टर नहीं तो मेडिकल स्टोर ही सही।
कितनी फिल्मों की शूटिंग पूरी कर चुके हैं?
‘डेढ़ बीघा जमीन’ और ‘वो लड़की है कहां’ फिल्म बनकर तैयार है। एक अनटाइटल्ड फिल्म विद्या बालन के साथ की है, लेकिन उसका टाइटल अभी तक फाइनल हुआ नहीं है। लेकिन ये फिल्म भी बनकर तैयार हो गई है। इनमें से कोई एक फिल्म जल्द रिलीज होनी चाहिए।
‘डेढ़ बीघा जमीन’, ‘वो लड़की है कहां’ आदि जो फिल्में कर रहे हैं। उनमें किरदार एक-दूसरे से कितने अलग हैं?
मेरे लिए सबसे संतुष्टि की बात यही है कि हर एक कैरेक्टर एक-दूसरे से बहुत अलग है। मैं चाहता भी यही था कि अलग-अलग चीजों को दर्शकों के सामने लेकर आऊं। मुझे ज्यादातर ऑडियंस ‘स्कैम 1992’ के जरिए जानती है। उसके पहले मेरा काम को दर्शकों ने नहीं देखा है। उसके बाद ‘भवाई’ और अब ‘कहानी रबर बैंड की’ रिलीज हुई है। इस फिल्म को मैंने ‘स्कैम 1992’ के पहले साल 2018-19 में किया था और ये रिलीज अब हो पाई है। ज्यादातर ऑडियंस ने मेरे एक-दो काम ही देखे हैं, इसलिए मैं चाह रहा हूं कि मेरे पास जो भी काम आए, वो अलग-अलग किरदार के हों ताकि मैं लोगों तक नई चीजें पहुंचा सकूं।
एक इंटरव्यू में पढ़ा था कि आप ‘स्कैम 92’ से पहले बहुत मुश्किल में जिंदगी काट रहे थे। ये मुश्किल क्या थी?
खैर, हर एक की लाइफ में चैलेंजिंग टाइम होता है। मैं मुंबई से नहीं हूं। इंजीनियर हूं, तब एक्टिंग और इंजीनियरिंग, दोनों फील्ड में एक साथ काम करता था। फुल डे जॉब, उसके बाद अर्ली मॉर्निंग नाटक का रिहर्सल करना और वीकेंड पर शोज करना होता था। वो एक अलग जर्नी रही। उसके अलावा मुंबई में घर लेना, परिवार के साथ सेटल होना था। उस समय मेरा दिन लगभग 19 घंटे का होता था, क्योंकि साढ़े आठ, नौ घंटे जॉब के बाद दो-दो, तीन-तीन घंटा रिहर्सल और उसके बाद मुंबई का ट्रॉवेल टाइम होता था। इसके अलावा इकोनॉमिकली भी सब कुछ संभालना होता था। क्योंकि मेरे पिताजी को दो बार कैंसर रिलैप्स हुआ। उनका ट्रीटमेंट भी चलता रहा। इन सारी चीजों को एक साथ संभाल पाना और दो-तीन चीजें एक साथ करना डिफिकल्ट टाइम होता है। मुझे लगता है कि ये सबकी लाइफ में आता है।
सफलता के साथ ऑडियंस की उम्म्मीदें भी बढ़ जाती हैं? उसके लिए प्रयास तेज करना पड़ा होगा?
मेरा प्रयास हमेशा यही रहता है कि लोगों के सामने कुछ ऐसा लेकर जाऊं, जिसमें लोगों ने मुझे अब तक नहीं देखा है। ये तो ऐसा प्रेशर है कि इसे अगर लेते हैं, तब काम करना और मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैं इसे प्रेशर नहीं, बल्कि एक्साइटमेंट ही कहता हूं। क्योंकि मेरा जो काम है, वो एक्सपेरिमेंट करने का काम है। जब भी हम नया किरदार बनाते हैं, नई स्टोरी करते हैं, तब वो एक्सपेरिमेंट का काम होता है। हम अपनी पूरी समझ और मेहनत से उसे बनाने की कोशिश करते हैं। वो लोगों तक कितना पहुंचता है, कितना ट्रांसलेट होता है, वो एक हद के बाद मेरे हाथ में होता भी नहीं है। ये सारी चीजें प्रैक्टिकल हैं और उन्हें समझने के बाद भी लोग मुझे देखना चाहते हैं, तो अपने आपको एक बॉक्स में न रखकर हर बार एक्सपेरिमेंट करता रहूंगा, इतना ही सोचता हूं। इससे ज्यादा मैं सोचता भी नहीं हूं।
दीपावली से जुड़ी कोई याद और बात बताएंगे?
मेरा तो ये पसंदीदा त्योहार है। स्कूल में जब पढ़ता था, तब बताया जाता था कि दीपावली पांच दिनों का त्योहार है। स्कूल से निकला, तब कभी ऐसा नहीं रहा, जब पांच दिनों की एक साथ छुट्टी मिली हो। सिर्फ एक या दो दिन की छुट्टी मिलती है। मेरे लिए कोई भी त्योहार फैमिली के साथ रहने का एक मौका होता है। मैं सबसे ज्यादा अपने पिताजी को मिस करता हूं। वो अभी मेरे साथ नहीं हैं। डैडी के साथ ही हमेशा दीपावली का त्योहार मनाता था। फिर चाहे पटाखे लेने गए हों या पटाखे फोड़ने के लिए गए हों। दीवाली पर एक नई टी-शर्ट भी लेनी होती थी, तब पिताजी के साथ जाता था। बचपन से ऐसे मनाता हूं कि दीपावली में दो दिन नए कपड़े पहनता था। भले ही टी-शर्ट ही क्यों न हो, पर उसमें मजा ही आता था।