…तो 1742 में ही बन गया होता विश्वनाथ मंदिर:पेशवा बालाजी बाजीराव ने कर दी थी काशी पर चढ़ाई की तैयारी; नहीं मिला था किसी का सहयोग

वाराणसी का ज्ञानवापी प्रकरण जिला अदालत से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। काशी के इतिहास पर स्वतंत्र रूप से रिसर्च कर रहे सीनियर एडवोकेट और दी बनारस बार एसोसिएशन के पूर्व महामंत्री नित्यानंद राय ने विश्वनाथ मंदिर को लेकर एक नया फैक्ट पेश किया है।

एडवोकेट नित्यानंद राय का दावा है कि अगर वर्ष 1742 में काशी के लोग साथ दिए होते तो औरंगजेब के फरमान से ध्वस्त किए गए प्राचीन विश्वनाथ मंदिर की जगह उसी समय नया मंदिर बन जाता। मगर, ऐसा संभव न हो सका। नतीजतन, अब विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी को लेकर लंबी मुकदमेबाजी चल रही है।

1742 में बाजीराव मिर्जापुर में आकर रुके थे

एडवोकेट नित्यानंद राय ने ‘दैनिक भास्कर’ को बताया कि इतिहास में इस बात के प्रमाण हैं कि मुगल आक्रांता औरंगजेब के फरमान से विश्वनाथ मंदिर गिराया गया। उसके बाद महारानी अहिल्याबाई होलकर द्वारा उसी के समीप नए मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। मराठों का यह विचार था कि बाबा विश्वनाथ की मूल जगह को मुक्त कराया जाए। इसी उद्देश्य से 1 जून 1742 को पेशवा बालाजी बाजीराव मिर्जापुर में आकर रुके थे। उनके दिल-दिमाग में यह विचार था कि ज्ञानवापी मस्जिद को गिरा कर दोबारा आदि विश्वेश्वर का मंदिर बनाएंगे।

अत्याचार की आशंका से डर गए थे लोग

अवध के नवाब सफदरजंग को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने बनारस के पंडितों को इकट्ठा करके बालाजी बाजीराव को मार डालने की धमकी दी। इस पर काशी के स्थानीय लोग इस बात को लेकर बहुत चिंतित हुए कि अगर ज्ञानवापी मस्जिद बादशाह के हुक्म के बिना गिराई गई तो वह नाराज होकर उन लोगों पर भी भीषण अत्याचार करेगा।

ऐसे में उन्हें दूसरी जगह ही मंदिर बनवाने का विचार सही लगा। स्थानीय लोग ज्ञानवापी मस्जिद को गिरा कर पुनः आदि विश्वेश्वर के मंदिर की स्थापना के संबंध में दुविधा में थे। एक ओर धर्म का प्रश्न था और दूसरी ओर जान का…। स्थानीय लोगों ने जान को धर्म से अधिक मूल्यवान समझा और इसके चलते अपना मंसूबा दिल ही में लिए हुए बालाजी बाजीराव वापस लौट गए।

वर्ष 1789 में फिर हुआ था प्रयास

एडवोकेट नित्यानंद राय ने कहा कि डंकन के समय में भी मराठों ने इस बात की भी पूरी कोशिश की थी कि ज्ञानवापी मस्जिद की जगह मुसलमानों को मुआवजा देकर विश्वनाथ का मंदिर पुन‌: बना दिया जाए। महादजी सिंधिया ने इस संबंध में वर्ष 1789 में प्रयास किया था। मगर, अंग्रेज मुसलमानों से शत्रुता मोल नहीं लेना चाहते थे। इसलिए कुछ हो न सका।

नाना फडणवीस ने टीपू और अंग्रेजों की लड़ाई के समय अंग्रेजों की इस शर्त पर सहायता करने का वादा किया कि उसके बदले में विश्वनाथ का मंदिर पुन: अपने प्राचीन स्थान पर हिंदुओं को बनाने देंगे। हालांकि इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला और अंग्रेज अपने वादे से मुकर गए।

वर्ष 1761 में पानीपत की लड़ाई हार जाने के बाद मराठों की बाबा विश्वनाथ को आजाद कराने की इच्छा सदा के लिए समाप्त हो गई। विश्वनाथ के प्राचीन मंदिर को पुनः मूल स्वरूप में स्थापित करने में सहयोग न देने के कारण मराठों और अंग्रेजों में दुर्भाव पैदा हो गया। इसका पता जोनाथन डंकन के नाम लॉर्ड कार्नवालिस के 10 अगस्त 1792 के एक पत्र से भी लगता है।