मतलब ये है कि सवार अच्छा होगा, तो ब्यूरोक्रेसी अपने आप अच्छी चलेगी। सवार ढीला होगा, तो ब्यूरोक्रेसी मनमाने तरीके से चलेगी।
पिछले दिनों फूड सप्लाई मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास और जलदाय मंत्री महेश जोशी के बीच भी ब्यूरोक्रेसी पर लगाम को लेकर लेकर तू तू-मैं मैं हुई। उसके पीछे वजह थी अफसरों की परफॉर्मेंस तय करने वाली ACR भरने का हक मंत्रियों को देना।
क्या IAS अधिकारियों की ACR (एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) या APR (एनुअल परफॉर्मेंस रिपोर्ट) भरने का हक मंत्रियों के पास नहीं है? या मंत्री ऐसे बयान देकर जनता के बीच ये धारणा बनाना चाहते हैं कि अधिकारी काम अटकाते हैं। कहा तो यही जा रहा है कि एसीआर भरने का अधिकार मंत्री के पास होगा तो अधिकारी खौफ खाएंगे और मंत्री के बताए जनता के सारे काम झट से होने लगेंगे।
आखिर ये ACR पावर है क्या? क्यों मंत्री चाहते हैं कि ये पावर केवल उनके पास ही रहे? राजस्थान की साढ़े 8 करोड़ आबादी से इसका क्या लेना देना है?
भास्कर ने इसकी पड़ताल की और ऐसी बयानबाजी पर खामोश रहने वाले अफसर वर्ग को भी टटोला। आज मंडे स्पेशल स्टोरी में ACR के पावर का सच पढ़िए…।
शुरुआत ब्यूरोक्रेसी को लेकर दो घटनाओं से, जो इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं…।
दोनों में एक बात कॉमन है। योगी आदित्यनाथ ने अपनी पावर का इस्तेमाल कर एक भ्रष्ट अफसर का डिमोशन कर दिया। वहीं, राजस्थान के मिनिस्टर ने जो बयान दिया उसका सीधा सा अर्थ है कि हमें भी ये पावर दी जाए ताकि भ्रष्ट अफसरों पर नकेल कस सकें।
एसीआर क्या है, आसान भाषा में समझिए
एसीआर का मतलब होता है ‘एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट’। ये साल में एकबार बनती है। सालभर में अधिकारी ने अपने विभाग में क्या काम कराए, वो उस काम में कितने खरे उतरे। उस पर सीनियर अधिकारी और विभाग के मंत्री अपनी टिप्पणी करते हैं। किसी अधिकारी की शिकायत मिलती है, वो कुछ गलत करता है तो उसका भी रिकॉर्ड एसीआर रिपोर्ट में चढ़ाया जाता है। इसी रिपोर्ट के आधार पर यह डिसाइड होता है कि अधिकारी डिपार्टमेंट में सही काम कर रहा है या नहीं। प्रमोशन और पोस्टिंग में यही रिपोर्ट बड़ा रोल निभाती है।
अगर एसीआर खराब हो तो इसका अधिकारी पर असर क्या पड़ता है?
जिन अधिकारियों की एसीआर खराब होती है, उन्हें नॉन परफॉर्मर माना जाता है। ऐसे अधिकारियों को आमतौर पर डायरेक्ट जनता से जुड़े विभागों में या फील्ड पोस्टिंग नहीं दी जाती। एसीआर खराब होने का असर अधिकारी के प्रमोशन पर भी पड़ता है। तबादला हो जाता है। अगर कोई भ्रष्टाचार जैसे मामलों में दोषी पाया जाए तो एसीआर रिपोर्ट के आधार पर नौकरी से सस्पेंड तक कर दिया जाता है।
मुख्यमंत्री कब भरते हैं ACR?
मंत्री विभाग का HOD (हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट) होता है, तो ऐसे में अधिकारियों की ACR या APR (एनुअल परफॉर्मेंस रिपोर्ट) भरने का अधिकार उनके पास होता है। लेकिन ऐसे उदाहरण नाम मात्र के हैं, जहां कोई अधिकारी एक ही विभाग संभाल रहा हो। अब सवाल ये उठता है कि जब दो-तीन विभाग हों अधिकारियों के पास, तो ACR कौन भरेगा। तब मुख्यमंत्री ही संबंधित अधिकारी की ACR भरते हैं।
ACR यानी अधिकारियों को अंगुलियों पर नचाने वाली पावर…..
अब बड़ा सवाल ये है कि क्या इस रिपोर्ट को बनाने का अधिकार क्या मंत्रियों के पास नहीं है, क्या केवल मुख्यमंत्री ही इस रिपोर्ट को भरते हैं। मंत्री खाचरियावास ने जो मुद्दा उठाया उसकी असली जड़ क्या है? इस मुद्दे पर भास्कर रिपोर्टर ने मुख्यमंत्री के सलाहकार और पूर्व केंद्रीय फाइनेंस सेक्रेटरी अरविंद मायाराम से सवालों के जवाब लिए…
ACR क्या है, जिसे मंत्री भरने की पावर चाह रहे हैं?
एसीआर में अधिकारी की सालाना परफॉर्मेंस का आकलन होता है। मंत्रियों के पास इसे भरने की पावर पहले से है, हो सकता है कि जो अधिकार मांग रहे हों, उन्हें पूरी जानकारी नहीं हो।
ACR की प्रक्रिया क्या है?
यह कोई छिपी हुई प्रक्रिया नहीं है, बिलकुल पारदर्शी प्रक्रिया है। पहले जरूर कागजों पर काम होता था। अधिकारी को खुद की परफॉर्मेंस को लेकर की गई टिप्पणी की जानकारी नहीं मिलती थी। लेकिन अब ये प्रोसेस ऑनलाइन है। अधिकारी खुद पर की गई टिप्पणियां देख सकता है। किसी भी IAS की ACR मुख्य सचिव के थ्रू संबंधित मंत्री को जाती है। मंत्री अपनी टिप्पणी करता है और फिर मुख्यमंत्री के पास ACR जाती है। मुख्यमंत्री फाइनल अथॉरिटी होते हैं। वैसे भी कार्मिक विभाग (DOP) मुख्यमंत्री के अंडर में ही आता है।
क्या मंत्री फाइनल अथॉरिटी हो सकते हैं?
ऑल इंडिया सर्विसेज रूल पूरे देश में लागू है। सभी स्टेट के मुख्यमंत्री ही फाइनल अथॉरिटी होते हैं। यदि मंत्री को फाइनल अथॉरिटी बनाना होगा, तो इसके लिए भारत सरकार को ही सर्विस के रूल बदलने की प्रोसेस करनी होगी। साफ शब्दों में इसका मतलब है कि इस व्यवस्था में बदलाव होना बहुत मुश्किल है।
विवाद क्यों उठ रहा है, ये क्यों कहा जा रहा है कि अधिकारी जनता का काम अटका रहे हैं?
राजस्थान में उठ रहे विवाद के लिए किसी एक वर्ग को दोष नहीं दिया जा सकता। इसमें मंत्री और अधिकारी दोनों जिम्मेदार हैं। असली बात जवाबदेही (अकाउंटेबिलिटी) की है। अधिकारियों की ड्यूटी है, वो नियमों का ध्यान रखें। यदि मंत्री ने कहा कि फलाने को जमीन अलॉट कर दो, या राशन कार्ड बना दो गरीब आदमी है, तो अधिकारी को नियम देखने होंगे। मंत्री की मंशा पर सवाल नहीं है, लेकिन प्रक्रिया तो पूरी करनी ही पड़ेगी। हर चीज के लिए प्रक्रिया अपनानी होगी। नियम टूटेंगे, तो जांच एजेंसियों का सामना कौन करेगा?
काम अटकाने के आरोपों के बीच आखिर गलत कौन है?
इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच मैं ये कहूंगा कि मंत्री भी सही हैं और अफसर भी सही हैं। किसी एक की कमी नहीं बताई जा सकती। कुछ मंत्री अकाउंटेबिलिटी नहीं चाहते। वो बस ये चाहते हैं कि उनका बताया काम हो जाए। चाहे सही हो या गलत। वहीं, कुछ अधिकारी भी भ्रष्टाचार करते हैं। सभी जरूरतमंदों के बजाय सलेक्टिव लोगों का काम करना चाहते हैं। ऐसे में खींचतान होती है। ऐसे माहौल में जो निर्णय करेगा, उसे जवाबदेही भी उठानी पड़ेगी, जिससे वे बचना चाहते हैं।
यदि मंत्री जबरन काम करवाना चाहें तो?
यदि किसी फाइल पर अधिकारी नियमों का हवाला देते हुए काम के लिए मना करता है और मंत्री यदि फाइल पर ये लिख दे कि गलत हो या सही काम करना पड़ेगा। हालांकि ऐसा कोई लिखता नहीं है, फिर भी ऐसा हो तो ऑफिसर के पास रास्ता है कि मुख्य सचिव के जरिए मुख्यमंत्री से एडवाइस मांग ले। यदि मुख्यमंत्री भी काम करने के लिए लिख देते हैं, तो अपने आपके काम को लेकर अकाउंटेबिलिटी ऊपर वालों की हो जाएगी। ये एक एक्सट्रीम उदाहरण है, वैसे ऐसा होता नहीं है। प्रक्रिया में नियमों को संतुष्ट करने में ही समय लगता है।
सरकार और अफसरों के बीच इन विवादों से बचने के क्या उपाय हैं?
देखिए, एक बात साफ है कि मंत्री परमानेंट नहीं है, लेकिन अधिकारी परमानेंट है। यदि कोई काम नियम के खिलाफ जाकर हो जाए, तो कुछ सालों बाद अधिकारी से यही कहा जाता है कि हो सकता हो मंत्री जानकार नहीं थे, लेकिन आप तो नियम जानते थे। रही बात मंत्रियों और अफसरों के बीच की, तो साफ है कि द्वंद हमेशा से चलता है और आगे भी चलता रहेगा, इसे खत्म करना संभव नहीं है।
कुछ वरिष्ठ IAS अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा…
कुछ मंत्री हैं, जो चाहते हैं कि हम कहें वो अधिकारी कर दे बस। माना कोई फाइल अप्रूवल के लिए मंत्री के पास जाए, उसे उनके मुताबिक रिजेक्ट या पास करने का काम अधिकारी करें। उस फाइल पर टिप्पणी भी अधिकारी ही करे। जिससे मंत्री कह सकें कि मैंने कुछ नहीं लिखा, फाइल में नीचे से ही लिखा हुआ आया। मंत्री चाहते हैं कि नियमों के विपरीत है, उसका प्रपोजल नीचे से अधिकारी ही भेज दे, अधिकारी वो भेजता नहीं है, असली लड़ाई ये है। जबकि मंत्री के पास भी इसकी पावर होती है।
शेखावत ने बढ़ाए थे मुख्यमंत्री के अधिकार
1990 से 1998 के बीच राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत मुख्यमंत्री के पद पर थे। उस दौर से पहले आम तौर पर देश के अधिकांश राज्यों में आईएएस अफसरों की एसीआर विभागीय मंत्री ही भरते थे। लेकिन शेखावत ने इस अधिकार का पूरी तरह से केन्द्रीकरण मुख्यमंत्री के रूप में कर लिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उस दौर में मिली-जुली पार्टियों की सरकारें चल रही थीं। मुख्यमंत्री को सभी विभागों में ज्यादा दखल रखने, सरकार में स्थिरता बनाए रखने के लिए मंत्रियों के काम को कंट्रोल में रखने, अफसरों पर लगाम कसने, शक्ति संतुलन बनाए रखने की ज्यादा जरूरत थी। ऐसे में उन्होंने मुख्यमंत्री के पद को और भी शक्तिशाली कर लिया था। बाद में यह परिपाटी मध्यप्रदेश और फिर देश के अधिकांश राज्यों में चल पड़ी, जो अब तक जारी है।