पिछले कुछ सालों में दुनियाभर में कट्टरता बढ़ी है। कोरोना के बाद के सालों में और भी ज्यादा। इसकी एक बड़ी वजह अकेलापन है। लंबे समय तक अकेलेपन से जूझता इंसान असुरक्षित महसूस करने लगता है। ये भावना इतनी गहराती जाती है कि इंसान सुरक्षा की चिंता डूबने लगता है।
शिकागो यूनिवर्सिटी के सोशल न्यूरोसाइंटिस्ट जॉन कैसियोप्पो ने अकेलेपन के नतीजों पर शोध किया। वे बताते हैं कि किसी तरह के खतरे में न होने के बावजूद लंबे समय तक अकेले रहने से इंसान का दिमाग शरीर को खतरे के सिग्नल भेजने लगता है। शरीर ऐसे हॉर्मोन छोड़ने लगता है, जिससे तनाव बढ़ता है। नींद नहीं आती और बीपी की समस्या हो जाती है।
अकेलेपन से जल्दी मौत का खतरा
कुछ शोधों से पता चला है कि अकेलेपन की वजह से इंसान की मौत जल्दी हो सकती है। डॉ. कैसियोप्पो ने अपने शोध में यह भी पाया कि लंबे समय तक अकेले रहने वाले इंसान को दूसरों का साथ पसंद नहीं आता। उसे अकेलापन अच्छा भी लगता है और उससे डर भी।
ब्रिटिश जर्नल ऑफ साइकोलॉजी में छपी 2021 की एक शोध रिपोर्ट बताती है कि लोग पैसे कमाने की होड़ में एक-दूसरे से इतनी ज्यादा प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं कि सामाजिक दायरा नहीं बना पा रहे। इसमें वे लोग जो टॉप पर पहुंच गए हैं, अपने स्टेटस को कायम रखने के लिए इतना काम और संघर्ष कर रहे हैं कि गैर सामाजिक होते जा रहे हैं।
समाज के साथ अपनी सोच से अलग हो रहे लोग
शोध कहता है, नव उदारवाद लोगों में एक तरह के सामाजिक अलगाव, प्रतिस्पर्द्धा और अकेलेपन को प्रोत्साहित कर रहा है। दार्शनिक हनाह अरेंत ने इस स्थिति को ‘अपरूटेडनेस’ यानी ‘अपनी जड़ों से उखड़ जाना’ कहा है। इसमें इंसान न केवल समाज से कट जाता है, बल्कि वह खुद अपनी सोच से अलग हो जाता है। ऐसे इंसान कट्टर हो जाते हैं। इन्हें सर्व शक्तिमान अच्छा लगने लगता है।
ये किसी भी कट्टर विचारधारा से आसानी से प्रेरित हो जाते हैं। इस साल पॉलिटिकल साइकोलॉजी में छपे शोध में पाया गया कि जिन लोगों का सामाजिक जुड़ाव कम होता है, वे कट्टर विचारधारा वाली पार्टियों को वोट देते हैं। कट्टर विचारधारा के समर्थक और चरमपंथी समूहों में शामिल होने की एक वजह अकेलापन होता है।