जबरन धर्म परिवर्तन पर सुप्रीम कोर्ट ने सख़्ती बरतने को कहा है। जहां तक संविधान की बात है, उसमें धर्म परिवर्तन तो जायज़ है। कोई भी अपना धर्म बदलने को स्वतंत्र है, लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन जायज़ नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मसला बताते हुए जबरन धर्म परिवर्तन कराने वालों पर सख़्त कार्रवाई करने को कहा है। इस जबरन धर्म परिवर्तन में डरा- धमकाकर या लालच देकर धर्म बदलवाना भी शामिल हैं। याचिका में माँग की गई थी कि जबरन धर्म बदलवाने वालों को दंडित करने के लिए अलग से क़ानून बनाया जाना चाहिए। इस पर कोर्ट बाद में विचार करेगा।
कोर्ट में बताया गया कि धर्म परिवर्तन के ये मामले आदिवासी इलाक़ों में ज़्यादा होते हैं। इसके बारे कोर्ट ने सरकार से ही सवाल किया है कि वह क्या कर रही है? सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था। वह बाद में जवाब दाखिल करेगी।
उधर दिल्ली पुलिस ने एक सनसनीख़ेज़ मामले का खुलासा किया है जिसमें आफ़ताब नाम के युवक ने ही अपनी लिव इन पार्टनर श्रद्धा का छह महीने पहले बेरहमी से कत्ल कर दिया था। बेरहमी इतनी कि उसने श्रद्धा के शरीर के पैंतीस टुकड़े कर डाले। टुकड़ों को फ्रिज में रखा और रोज़ रात को दो- दो टुकड़े जंगल में फेंकने जाता था।
दरअसल, लिव इन का जो चलन है वह पश्चिमी देशों से आया है जहां 18-19 साल का होते ही बच्चे माता-पिता से अलग रहने लगते हैं। हमारे देश में ऐसा नहीं है। यहाँ तो ज्वाइंट फ़ैमिली होती है और माता- पिता चाहते हैं कि बच्चे उनके साथ उम्रभर रहें।
ठीक है बालिग़ होते ही बच्चे हमारे देश में भी अपनी मनमर्ज़ी करने को स्वतंत्र होते हैं, लेकिन दिल्ली जैसे मामले जब खुलते हैं तो मान काँप जाता है। दरअसल, कम उम्र में हमारे बच्चों में जीवन की वो समझ नहीं होती जो परिपक्वता के बाद ही आती है। सही-ग़लत का अंदाज़ा उन्हें नहीं हो पाता। तभी इस तरह के मामले होते हैं।
जब ये खुलते हैं तो आफ़त उन बच्चों की हो जाती है जो परिवार के साथ रहते हैं और सब कुछ जानते-समझते हैं। जीवन की समझ भी जिनमें होती है। माता- पिता और परिजन फिर ऐसे बच्चों पर भी सख़्ती करने लगते हैं, क्योंकि उदाहरण सामने होता है।
सही है, ऐसे मामले बच्चों पर सख़्ती का माध्यम नहीं बनना चाहिए, लेकिन इस तरह के जघन्य हत्याकांड जब सामने आते हैं तो परिजनों का डरना तो स्वाभाविक ही है। वे करें भी तो क्या करें? उन्हें अपने बच्चों की सुरक्षा हर हाल में देखनी ही होती है। उपाय भी करने होते हैं। सो करते हैं। आख़िर हम पश्चिमी देश तो हैं नहीं कि बालिग़ होते ही बच्चों को खुला छोड़ दें और वे जो चाहें वो करते फिरें!