संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में सुधार और विस्तार की मांग जब-तब अंगड़ाई लेती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जबसे सुरक्षा परिषद में सुधार की पैरवी तेज की है तबसे वैश्विक माहौल इसके बदलाव के पक्ष में बन रहा है। हाल में दुनिया के 70 देश इसमें बदलाव के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। ब्रिटेन और फ्रांस ने सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की वकालत की है। फ्रांस ने भारत के साथ जर्मनी, ब्राजील और जापान की दावेदारी का भी समर्थन किया है। ब्रिटेन भी भारत की स्थायी सदस्यता की मांग कर चुका है। दरअसल उभरते देशों की भागीदारी संयुक्त राष्ट्र जैसी शक्तिशाली संस्था में आवश्यक हो गई है, जिससे आतंक का समर्थन करने वाले देश चीन की जुबान पर लगाम लगाई जा सके। सुरक्षा परिषद में नए सदस्यों के रूप में 25 देशों की भागीदारी संभव है। इस गुंजाइश के चलते अफ्रीकी देश भी इसमें भागीदारी चाहते हैं। फ्रांस ने तो यहां तक कहा है कि इन सीटों के अलावा जो सीटें बचती हैं, उनका आवंटन भौगोलिकता के आधार पर किया जाए, जिससे पूरी दुनिया की बात सुरक्षा परिषद में उठाई जा सके। ऐसा होता है तो वीटो जैसे संवेदनशील मुद्दे पर आग्रह-दुराग्रह का दायरा सीमित हो जाएगा और सुरक्षा परिषद की महत्ता अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए निष्पक्षता से रेखांकित की जा सकेगी।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थापना हुई थी। इसका मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से सुरक्षित रखना था। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को इसकी स्थायी सदस्यता प्राप्त है। इन्हें पी-5 भी कहते हैं। इसके अस्तित्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए भारत लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुनर्गठन की मांग इसकी बैठकों में करता रहा है। भारत कई दृष्टियों से न केवल सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की हैसियत रखता है, बल्कि वीटो-शक्ति हासिल कर लेने की पात्रता भी इसे है। क्योंकि यह दुनिया का सबसे बड़ा पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है। 135 करोड़ की आबादी वाले देश भारत में अनेक अल्पसंख्यक धर्मावलंबियों को वही संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं, जो बहुसंख्यक हिंदुओं को मिले हैं।
भारत ने साम्राज्यवादी मंशा के दृष्टिगत कभी किसी दूसरे देश की सीमा पर अतिक्रमण नहीं किया, जबकि चीन ने तिब्बत पर तो कब्जा किया ही, तिब्बतियों की नस्लीय पहचान मिटाने में भी लगा है। यही हरकत वह लाखों उइगर मुसलमानों के साथ कर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी अहम भूमिका निभाई है। चीन यह कतई नहीं चाहता कि भारत और जापान को सदस्यता मिले, क्योंकि दक्षिण एशिया में वह अकेला ताकतवर देश बने रहना चाहता है। ब्रिटेन और फ्रांस जर्मनी के प्रतिद्वंद्वी हैं। जर्मनी को स्थायी सदस्यता मिलने में यही दोनों रोड़ा अटकाने का काम करते हैं। महाद्वीपीय प्रतिद्वंद्विता भी अपनी जगह कायम है। लैटिन अमेरिका से ब्राजील, मेक्सिको और अर्जेंटीना सदस्यता के लिए प्रयासरत हैं। तो अफ्रीका से दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया जोर-आजमाइश में लगे हैं।
जाहिर है सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन होता भी है तो भारत जैसे देशों को बड़े पैमाने पर अपने पक्ष में प्रबल दावेदारी तो करनी ही होगी, बेहतर कूटनीति का परिचय भी देना होगा। सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन होने से पी-5 देशों की शक्ति के विभाजन का द्वार खुल जाएगा। इससे दुनिया के अधिक लोकतांत्रिक होने की उम्मीद बढ़ जाएगी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के मौजूदा प्रविधानों के मुताबिक इसमें बहुमत से भी लाए गए प्रस्तावों को खारिज करने का अधिकार पी-5 देशों को है। ये देश किसी प्रस्ताव को खारिज कर देते हैं तो यथास्थिति और टकराव बरकरार रहेंगे। साथ ही यदि किसी नए देश को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल भी जाती है तो यह प्रश्न भी कायम रहेगा कि उसे वीटो की शक्ति दी जाती है अथवा नहीं?