वामदलों का कांग्रेस से रिश्ता, कहीं दोस्ती कहीं दुश्मनी; बिहार में सरकार को दिया सहारा, तो केरल में है आपत्ति

राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विरोध कर रहे वामदलों का कांग्रेस के साथ अजीब रिश्ता है। कहीं कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं तो कहीं प्रचंड विरोध में खड़े हैं। दो वर्ष पहले बंगाल में कांग्रेस के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ चुके वामदलों ने फिर पलटी मारी है। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में विपक्षी दलों के शामिल होने के राहुल गांधी के आग्रह पर वामदलों ने आपत्ति जताई है।

विरोध और समर्थन का सिलसिला जारी

बिहार में कांग्रेस के साथ वाली महागठबंधन सरकार को बाहर से सहारा और समर्थन देने वाले वामदलों को सर्वाधिक आपत्ति केरल को लेकर है, जहां राहुल गांधी ने 18 दिन तक वाम सरकार के खिलाफ पदयात्रा की है। त्रिपुरा में भी पुरानी दुश्मनी को नजरअंदाज कर भाजपा सरकार के खिलाफ विपक्ष के अभियान में माकपा ने कांग्रेस का साथ मांगा है। स्पष्ट है कि दोनों ध्रुवों के बीच विरोध और समर्थन का सिलसिला आगे भी जारी रह सकता है।

विचारधारा स्थायी न होने का उठाना पड़ा नुकसान

राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी का स्थायी विभाजन नहीं होता, फिर भी विचारधारा से दलों की पहचान होती है। आजादी के बाद 34 वर्षों तक बंगाल पर एकक्षत्र राज करने वाले वामदलों की विचारधारा कभी स्थायी नहीं रही, जिसका नुकसान भी उन्हें उठाना पड़ा है।

वामपंथियों ने स्वयं को बनाया संदिग्ध

कभी बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वामपंथ का प्रभुत्व था। बिहार में भी लालू प्रसाद के राजनीतिक अवतरण के पहले तक ऐसा लग रहा था कि आने वाला समय वामपंथी विचारों का ही होगा, लेकिन अपनी जमीन और विचारधारा पर खड़े और अड़े नहीं रहकर वामपंथियों ने स्वयं को ही काफी हद तक संदिग्ध बना लिया।

वामपंथियों को भुगतना पड़ा गलती का खामियाजा

वामपंथी पहले बंगाल में कांग्रेस से लगातार लड़ते रहे, लेकिन 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देकर तृणमूल कांग्रेस के प्रयासों को मौका दे दिया। वामदलों ने अपने आधार वाले बंगाल में ही दूसरी गलती 2020 में तब की, जब विधानसभा चुनाव में उसी कांग्रेस का हाथ थाम लिया, जिसने कभी इन्हें पनपने से रोकने का प्रयास किया था। नतीजा हुआ कि वामदलों के हाथ से बंगाल काफी दूर चला गया।

बिहार में अभी भी सरकार के साथ खड़े हैं वामदल

बिहार में भी वामदलों की जमीन कमजोर होने का लगभग यही कारण है। दशक भर पहले तक लालू प्रसाद एवं राबड़ी देवी की शासन-शैली का प्रचंड विरोध किया। मौका मिलने पर लालू ने भी वामदलों को खंड-खंड करने में कोई संकोच नहीं किया, लेकिन बाद में उसी राजद की गोद में बैठने में भी देर नहीं लगाई। राज्य की सत्ता से भाजपा को हटाने के नाम पर बिना संकोच वामदलों की स्थानीय कमेटी राजद-कांग्रेस सरकार के साथ आज भी खड़ी है।

केरल को बचाना बड़ी चुनौती

राहुल गांधी की यात्रा की अपील पर एतराज जताने वाले वामदलों के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती केरल में अपने प्रभुत्व की रक्षा करने की है। उसके हाथ से एक-एक कर सभी राज्य जाते रहे हैं। हालांकि वाम राजनीति के लिए यह सुकून की बात हो सकती है कि केरल में 2016 के बाद 2021 के विधानसभा चुनाव में भी वामपंथी सरकार की प्रचंड वापसी हुई है। उसे विधानसभा की 140 सीटों में से 99 पर जीत मिली थी।

केरल में लग सकता है बड़ा झटका

इस सफलता का उल्लेख इसलिए भी जरूरी है कि 2019 के संसदीय चुनाव में राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने का असर ऐसा हुआ था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को 20 में से 19 सीटों पर जीत मिल गई थी। वामदलों के फ्रंट को सिर्फ एक सीट से ही संतोष करना पड़ा था। अगर केरल भी हाथ से फिसला तो इस विचारधारा की राजनीति को बड़ा झटका लगना तय है।