The Hindu हिंदी में:न्यूजक्लिक पर की कार्यवाही के बाद, कोर्ट को क्या विचार करने की जरूरत है? पढ़िए 18 अक्टूबर का एडिटोरियल

भारत में हाल ही में घटी घटना कुछ दिनों पहले दिल्ली पुलिस ने न्यूज संस्था न्यूजक्लिक पर व्यापक छापेमारी की। इसे अक्सर कही जाने वाली कहावत “चिलिंग इफेक्ट” से भी नहीं समझाया जा सकता यानी ‘मानहानि का डर’ या कानून के डर से भी नहीं समझाया जा सकता।

इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार किया गया, इनमें न्यूजक्लिक संस्थापक और प्रमुख संपादक प्रबीर पुरकायस्थ भी शामिल हैं, जिन पर अनलॉफुल एक्टिविटी प्रिवेंशन एक्ट (UAPA ) के तहत केस दर्ज किया गया। पुलिस की कार्यवाही बहुत बड़ी थी, और इसमें जूनियर कर्मचारियों की भी तलाशी ली गई और उनके इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस जब्त कर लिए गए।

अगर हम सीधे तौर पर कहें तो FIR में आरोप लगाया गया है कि न्यूजक्लिक चीन समर्थकों से फंड लेती है, और इसके बदले 2020–21 में हुए किसान आंदोलन जैसी घटनाओं को कार्यक्रम के तौर पर प्रसारित करके, देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डालती है। वहीं, न्यूज संस्था ने इन सभी आरोपी को खारिज किया है।

पुलिस द्वारा इस हद की जबरदस्त कार्यवाही, जिसमें आतंकवाद विरोधी कानून पत्रकारों पर लादे गए, इस कार्यवाही ने बोलने की स्वतंत्रता में आ रही गिरावट पर गंभीर सवाल उठा दिए हैं, इस पर व्यापक तौर पर सवाल हुए है लेकिन इस घटना को हमें और घटनाओं से अलग करके नहीं देखना चाहिए।

पिछले कुछ सालों में धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़े मामले, अभिव्यक्ति की आजादी और राजनीतिक फंडिंग से पता चलता है कि संविधान में लिखे नियमों और मूल तत्वों पर बाहरी हमला हो रहा है।

कोर्ट की महत्वपूर्ण भूमिका

धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति निरंतर हो रही हिंसा और उन्हें आरोपी के रूप में प्रस्तुत करने के तमाम प्रयास हो रहे हैं, जब ऐसी घटनाओं के साथ ही सब घट रहा है और घटनाओं जैसे इलेक्टोरल बॉन्ड द्वारा चोरी से राजनीतिक चंदा, लेने के साथ जोड़कर देखा जाए, तब एक साफ तस्वीर दिखाई देती है, लोकतंत्र के विचार और कानून पर इन घटनाओं का व्यापक असर दिखना तय है।

ऐसे में कोर्ट को संविधान की डेमोक्रेसी, उदार और परिवर्तनशील भावना को मिल रही चुनौतियों से कानून में लिखे नियम से आगे जाकर लड़ना होगा।

किसी लोकतंत्र में कोर्ट के दायरे को लेकर कानूनी विशेषज्ञों में सदियों से बहस चली आ रही है। कोर्ट अपने आप में एक बिना चुनाव के बना संस्थान है, जो ऐसे सिस्टम में काम करता है, जहां लेजिस्लेचर (यानी कानून के अधिकार बनाने के लिए) वो चुन कर आती है।

ये इस सवाल को जन्म देता है कि क्या न्यायालय चुनी हुई इकाई द्वारा बनाए गए कानून को निरस्त कर सकता है? आखिरकार, संसद को जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधि माना गया है। कोर्ट द्वारा चुनी हुई इकाई के बनाए कानून को ‘ना’ करना कितना जायज है?

लेकिन जायज होने के सवाल से सहानुभूति रखने वालों ने भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बचाए रखने में कोर्ट की भूमिका को गंभीरता से देखा है।

20वीं सदी के प्रमुख संविधान विशेषज्ञ में से एक, जॉन. हार्टी एली कहते हैं, कोर्ट को अपनी ताकत को सही बताने के लिए जरूरी है कि वो उन प्रक्रियाओं पर ध्यान दे, जिससे लोकतंत्र मजबूत होता है।

कौन से नियमों और विचारों से समाज पर शासन होगा, यह फैसला चुनी हुई सरकार पर छोड़ देना चाहिए, लेकिन कोर्ट पर यह जिम्मेदारी है कि वह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की सलामती को सुनिश्चित करे।

ऐसा इसलिए है, क्योंकि यदि लोकतांत्रिक प्रक्रिया गलत है, तो चुनी हुई सरकार के जायज होने पर भी सवाल उठने की पर्याप्त संभावना पैदा हो जाती है। जैसे यदि चुनाव प्रक्रिया का ढांचा ऐसा है कि अल्पसंख्यक को प्रभावी प्रतिनिधित्व से दूर रखे, तो इससे बराबरी के सिद्धांत को गहरी चोट पहुंचती है।

यदि चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली होती है, तब क्यों नहीं चुनी हुई सरकार पर गैर-कानूनी होने के आरोप लगते रहेंगे और उसके पर हमेशा सवाल उठेंगे?

ऐसे में, कोर्ट जो लोकप्रियता के दायरे से बाहर आता है, उसकी जिम्मेदारी है कि इस बात को सुनिश्चित करे कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सलामती का खयाल रखा गया है।

एक तरह से, एली जैसे विशेषज्ञ मानते हैं कि चुनावी प्रक्रिया से दूर रहने के कारण कोर्ट के लिए न्यायिक प्रक्रियाओं का ध्यान रखना आसान हो जाता है।

भारत के बारे में बात करने पर ये बात किताबी ज्ञान लग सकती है, क्योंकि आज सुप्रीम कोर्ट को कानून निरस्त करने और संवैधानिक बदलाव को समाप्त करने का अधिकार है।

बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन के जरिए, कोर्ट संसद द्वारा संविधान में बदलाव को भी एक सीमा में रखता है , इसलिए कोर्ट से संवैधानिक न्याय की उम्मीद रखना गलत नहीं है।

हालांकि, इस सुरक्षा-न्याय को बोलने भर से तय नहीं किया जा सकता, इसके उपयोग से संविधान की चुनौतियों की पहचान की जाती है। संविधान में लिखे हुए शब्दों को बदले बिना भी इसे बाहर से कमजोर किया जा सकता है।

ऐसा करने के लिए मामूली कानून की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रक्रिया को समझने के लिए, हमें लोकतंत्र के विचार को चुनाव की प्रक्रिया से आगे बढ़कर देखना होगा।

लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट

20वीं सदी के एक अन्य महत्वपूर्ण कानूनी और राजनीतिक विशेषज्ञ रिचर्ड डोरकिन, मानते हैं कि सैद्धांतिक रूप से लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट देकर फैसला लेना नहीं है, बल्कि फैसले लोकतांत्रिक परिस्थितियों में होने चाहिए, जिसका ढांचा, बनावट और मान्यताएं समुदाय के सभी सदस्यों को एक बराबर सम्मान दे और उनकी बराबर चिंता करें।

यही “संवैधानिक लोकतंत्र” का संवैधानिक पहलू है।

आसान भाषा में कहा जाए तो, “संवैधानिक परिस्थिति” बिना बुनियादी मूल्यों के संभव नहीं है, जो की एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है।

इसमें अभिव्यक्ति की आजादी, किसी ग्रुप से जुड़ने या अलग होने की आजादी, जैसे कई अधिकार सम्मिलित हैं, जो सुनिश्चित करते हैं की मेजॉरिटी कंट्रोल से बाहर ना हो जाए।

भरोसे के साथ दावा किया जा सकता है कि भारतीय संविधान बातों में इन परिस्थितियों को बनाने में काफी हद तक सफल रहा है।

इनमें से कई, जिनमें लोकतांत्रिक प्रणाली और मौलिक अधिकार शामिल हैं, सुप्रीम कोर्ट के दस्तावेज के बुनियादी ढांचे का हिस्सा हैं, लेकिन इन परिस्थितियों पर हमला करने के लिए पूरे संविधान को दोबारा लिखने की जरूरत नहीं है। वास्तव में, संविधान में कुछ भी दोबारा लिखने की जरूरत नहीं है।

जब पत्रकारों पर आतंकवाद से लड़ने के कानून थोप दिए जाते हैं, तब अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार का शाब्दिक रूप से संविधान में सुरक्षित रहते हुए भी, संविधान को बाहर से चोट पहुंचती है।

जब अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरती भाषण बिना रोक-टोक दिए जाते हैं, तब धर्मनिरपेक्षता शाब्दिक रूप से सुरक्षित होते हुए भी अनुभव नहीं किया जाता। जब चुनावी फंडिंग सीधे तौर इकट्ठा की जाती है, तब लोकतंत्र केवल कागजों तक सीमित रह जाता है।

कुछ मामलों में बेसिक स्ट्रक्चर ‘डॉक्ट्रिन’ को कानूनी रूप से इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता, क्योंकि ऐसे ‘डॉक्ट्रिन’ के साथ एक वैचारिक सीमा जुड़ी हुई होती है। यह निश्चित परिस्थितियों में ही उपयोग में लाया जा सकता है।

लेकिन कोर्ट के पास किसी भी बुरे विचार को रोकने के लिए पर्याप्त शक्तियां हैं। संविधान के दायरे के बाहर रहकर किए गए अपराधों पर, आखें मूंद लेने से संविधान और कोर्ट दोनो की पहचान समाप्त हो जाएगी। कोर्ट इन चुनौतियों का कैसे सामना करता है, ये तय करेगा कि लोगों और कोर्ट का अपना भविष्य क्या होगा?

संवैधानिक पहचान को केवल शब्दों में बदलाव से ही खतरा नहीं है बल्कि स्वतंत्र लोकतांत्रिक माहौल में गिरावट से भी खतरा है।