मुक्ति के लिए अपनों का इंतजार कर रही अस्थियां:कानपुर के अस्थि कलश बैंक में अस्थि रखकर भूल गए लोग; संस्था ने किया विसर्जन

पुं नाम नरक त्रायेताति इति पुत्रः। इसका हिन्दी अर्थ है, पुत्र के अंतिम संस्कार करने से पिता को मुक्ति मिलती है। लेकिन, अगर पुत्र पिता की मौत पर या फिर अंतिम संस्कार करने ही न आए तब? ऐसा इसलिए क्योंकि कानपुर के भैरव घाट पर आज भी तमाम अस्थियां अपनों का इंतजार कर रही हैं। वह पूछ रहीं कि मेरा विसर्जन कब होगा? कब मुझे मुक्ति और मोक्ष मिलेगा?

इस वक्त पितृ पक्ष चल रहा। तमाम लोग अपने पिता के लिए धार्मिक अनुष्ठान करवा रहे। फिर ऐसी क्या वजह रही कि इसी समाज के कुछ लोग आज तक अपनों की अस्थियां लेने नहीं आए? अस्थियां नहीं ले गए तो उनका क्या हुआ? तमाम सवालों के साथ हम यूपी के पहले अस्थि कलश बैंक पहुंच गए। सबसे पहले यह तस्वीर। फिर कहानी…

हर दिन 30 से ज्यादा अंतिम संस्कार दैनिक भास्कर की टीम कानपुर के भैरव घाट पहुंची। यह शहर का मुख्य श्मशान घाट है। यह पार्वती बांग्ला रोड के आगे रेव थ्री मॉल के पीछे गंगा के किनारे है। यहां इलेक्ट्रिक शवदाह गृह भी है। हालांकि ज्यादातर लोग नॉर्मल तरीके से ही अंतिम संस्कार करते हैं। घाट पर औसतन 5-6 लोगों का अंतिम संस्कार इलेक्ट्रॉनिक के जरिए और 30 से 50 लोगों का अंतिम संस्कार लकड़ी पर जलाकर किया जाता है।

जहां इलेक्ट्रॉनिक शवदाह गृह है, वहीं अस्थि कलश बैंक है। इसे दधिचि देहदान संस्थान ने नवंबर-2014 में शुरू किया था। हम घाट से होते हुए इस बैंक तक पहुंचे। यहां हमें छेदी मिले। छेदी पिछले 23 साल से भैरव घाट पर लाशों को जलाने का काम करते हैं। जब से इलेक्ट्रॉनिक शवदाह बन गया, तब से वह इसी में अंतिम संस्कार करवाते हैं। अस्थि कलश की देखरेख भी खुद करते हैं।

जो लावारिश उनका छेदी करते हैं अंतिम संस्कार छेदी कहते हैं, बहुत सारे ऐसे लोग होते हैं जो अस्थियां तुरंत नहीं ले जाना चाहते। इसलिए वह यहीं रख देते हैं। क्योंकि अस्थियां घर नहीं ले जाई जा सकती। कई ऐसे भी लोग होते हैं जो तुरंत अस्थियां लेकर उसे गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। जो यहां रखना चाहते हैं, उन्हें हम ताला-चाबी दे देते हैं। फिर 6 महीने एक साल में वह आते हैं और ले जाकर विसर्जन करते हैं।

हमने छेदी से पूछा जो नहीं आते, उनकी अस्थियां क्या होती हैं? छेदी कहते हैं, ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं जो नहीं आते। जब ज्यादा वक्त बीत जाता है तब उनकी अस्थियों को अस्थि कलश बैंक की शुरुआत करने वाले मनोज सेंगर भइया विसर्जित करते हैं। यह पूरे धार्मिक विधि-विधान से किया जाता है। जो लावारिश लाशें होती हैं, उनको हम खुद गंगा में प्रवाहित करते हैं।

कोरोना के वक्त जो मरे, उनकी अस्थियां लेने वाले नहीं आए 2020-21 में इस घाट पर अंतिम संस्कार के लिए जगह नहीं थी। उस वक्त लोगों से ज्यादा लाशें नजर आती थीं। एक-एक दिन में 150 लाशों का अंतिम संस्कार होता था। यहां का रिकॉर्ड 191 अंतिम संस्कार का है। उस वक्त हॉस्पिटल्स से कई ऐसी लाशें आती थीं, जिनके लोग देश से बाहर या फिर देश के किसी हिस्से में रहते थे। वह नहीं आ पाए। उनका अंतिम संस्कार किया गया और अस्थियां रख दी गई। करीब 2 साल के इंतजार के बाद भी जब कोई नहीं आया तो उन्हें विसर्जित कर दिया गया।

पत्नी की सलाह पर शुरू की ये पहल अस्थि कलश बैंक की शुरुआत करने वाले मनोज सेंगर से बात की। वह बताते हैं, हमारी पत्नी माधवी सेंगर ने अस्थियों को रखने के लिए ऐसी पहल की सलाह दी थी। कहा था कि अस्थियों को रखने की कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके बाद हम लोगों ने नवंबर 2014 में इसकी शुरुआत की। अब लोग वहां अपनों की अस्थियां रख जाते हैं, उसमें ताला लगा दिया जाता है। उन लोगों को टोकन दे दिया जाता है। बाद में वह आते हैं और फिर जहां उनका मन होता है वह उसे विसर्जित कर देते हैं।

मनोज सेंगर कहते हैं कि कई बार लोग नहीं आते। ऐसे में एक तय समय के बाद हम ही पूरे विधि-विधान से उन अस्थियों को भू-विसर्जित करते हैं। भू-विसर्जित इसलिए ताकि गंगा प्रदूषित न हों। इसके जरिए एक संदेश देने की भी कोशिश होती है। कोरोना के वक्त हजारों लोगों ने इसका लाभ उठाया। अब तक हम लोग 100 से ज्यादा अस्थियों का हम लोगों ने विसर्जन किया है।

देश के तमाम हिस्सों में लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार करवाने वाले खूब सारे लोग हैं, लेकिन अस्थियों को सुरक्षित रखने और उन्हें विसर्जित करने की ऐसी पहल कहीं और नहीं दिखी। कानपुर में मनोज और उनकी पत्नी माधवी इसी तरह के अस्थि कलश बैंक कई और जिलों में खोलना चाहते हैं, ताकि किसी की अस्थियां बिना विसर्जन के न रह जाएं।