* स्थायी नियुक्तियों के बाद नियमानुसार कॉलेजों को करानी होती है जाति प्रमाणपत्रों की जाँच।
* विश्वविद्यालय / कॉलेज अपने स्तर पर जाति प्रमाणपत्रों की जाँच करा कर विश्वविद्यालय प्रशासन को सूचित करते हैं।
एससी/एसटी ओबीसी टीचर्स फोरम दिल्ली विश्वविद्यालय (शिक्षक संगठन) के अध्यक्ष प्रोफेसर के.पी. सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर योगेश सिंह को पत्र लिखकर मांग की है कि पिछले दो वर्षों में विभागों / कॉलेजों में एससी/एसटी, ओबीसी, ईडब्ल्यूएस व विकलांग के आरक्षित पदों पर हुई शिक्षकों की स्थायी नियुक्तियों के जाति प्रमाणपत्रों की जाँच कराई जाए। उन्होंने बताया है कि जिन शिक्षकों की नियुक्ति पिछले दो वर्षों में एससी/एसटी, ओबीसी, ईडब्ल्यूएस व विकलांग के आरक्षित पदों पर हुई है, वहाँ संबंधित कॉलेजों ने अभी तक उनके आरक्षण प्रमाणपत्रों की फोरेंसिक लैब में जाँच नहीं कराई है। उनका कहना है कि सेमेस्टर परीक्षाएँ समाप्त होने के बाद या आगामी शैक्षिक सत्र —2025-26 के आरंभ होने से पूर्व जाति प्रमाणपत्रों की जाँच की मांग पुन: की जा रही है। उनका कहना है कि इस समय आरक्षित पदों पर स्थायी रूप से नियुक्त हुए शिक्षकों का प्रोबेशन टाइम भी पूरा हो चुका है, लेकिन कॉलेजों ने अभी तक उनके जाति प्रमाणपत्रों की जाँच नहीं कराई है।
प्रोफेसर सिंह ने बताया है कि जाति प्रमाणपत्रों की जाँच की मांग इसलिए कि जा रही है कि पिछले कई वर्षों से फर्जी जाति प्रमाणपत्रों के आधार पर फर्जी छात्र एडमिशन ले लेते थे जिससे आरक्षित वर्ग के हकदार छात्र समय पर प्रवेश लेने से वंचित रह जाते थे। प्रोफेसर सिंह का कहना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पहली बार बहुत अधिक संख्या में शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति हुई है। ऐसे में आनन फानन में बनाए गए जाति प्रमाणपत्रों की जाँच जरूरी हो जाती है। जाँच प्रक्रिया को व्यवस्थित करना विश्वविद्यालय / कॉलेजों की नैतिक जिम्मेदारी होती है। आरक्षित पदों पर हुई स्थायी नियुक्ति के शिक्षकों के जाति प्रमाण पत्रों की जाँच इसलिए भी जरूरी है कि अन्य पिछड़ा वर्ग में क्रीमीलेयर संबंधी प्रावधान को जाति प्रमाणपत्र में पूरा करना आवश्यक होता है। इसी तरह कई राज्यों में एससी/एसटी, ओबीसी की जातियों में काफ़ी फेरबदल है। कुछ जातियाँ एक राज्य में एससी कटेगरी में हैं तो दूसरे राज्य में ओबीसी कटेगरी में हैं। इस तरह के जाति प्रमाणपत्रों की राज्यों के अनुसार जाँच बहुत जरूरी हो जाती है। सामान्य वर्ग की जातियों के साथ यही स्थिति उत्तर पूर्व के राज्यों में देखने को मिलती है। अतः ऐसे प्रमाणपत्रों की वैधता के लिए प्रशासनिक स्तर पर जाँच तो की ही जानी चाहिए साथ ही इसकी फोरेंसिक लैब में भी जाँच कराई जानी चाहिए।
प्रोफेसर सिंह का कहना है कि कॉलेजों में एससी/एसटी, ओबीसी, ईडब्ल्यूएस व विकलांग कोटे के जाति प्रमाणपत्रों की मुकम्मल जाँच नहीं की जाती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी भी कॉलेज ने अपने स्तर पर कोई भी ऐसी कमेटी गठित नहीं की है जो शिक्षकों/कर्मचारियों और छात्रों के जाति प्रमाणपत्रों की जाँच करे। प्रोफेसर सिंह ने बताया है कि यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों / कॉलेजों /संस्थानों को सख्त निर्देश दिया है कि वे अपने यहाँ आरक्षित वर्ग की समस्याओं के समाधान के लिए और जाति प्रमाणपत्रों की जाँच के लिए एससी/एसटी, ओबीसी सेल बनाएँ। जबकि अधिकांश कॉलेजों ने इस निर्देश पर कोई ध्यान नहीं दिया है। यूजीसी का इस तरह की सेल बनाने के लिए निर्देश देने का कारण स्पष्ट था कि आरक्षित जातियों के शिक्षकों, कर्मचारियों की नियुक्ति एवं पदोन्नति संबंधी भेद-भाव की समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर किया जा सके।
प्रोफेसर सिंह ने डीयू के कुलपति से यह भी मांग की है कि वह कॉलेजों के प्रिंसिपलों को एक सर्कुलर जारी करें जिसमें यह निर्देश दिया गया हो कि वह अपने कॉलेज में फॉरेंसिक लेब की व्यवस्था करें। इससे कि जाति प्रमाणपत्रों की जाँच संबंधी प्रक्रिया को यथाशीघ्र पूरा किया जा सके।
प्रोफेसर के.पी.सिंह