International Day of Families 2021 इंजीनियरिंग के स्टूडेंट शोभित विगत दो वर्षों से हॉस्टल में रह रहे हैं। बमुश्किल छुट्टियों में घर जाना हो पाता है। कभी मन हुआ भी, तो पिता के डर से नहीं जाते हैं। लेकिन कोविड-19 ने उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। वह बीते करीब एक वर्ष से अपने घर से ही ऑनलाइन क्लासेज कर रहे हैं। कमाल की बात यह है कि अब पिता के साथ संकोच या भय नहीं रहा, बल्कि दोनों में अच्छा दोस्ताना हो गया है। बताते हैं शोभित, ‘पापा से सबसे अधिक मतभेद पढ़ाई को लेकर था। उन्हें लगता था कि मैं पढ़ने पर ध्यान नहीं देता और वीडियो गेम्स में डूबा रहता हूं।
कभी इस गलतफहमी को दूर करने या अपनी बात स्पष्टता से कहना का मौका नहीं मिला। आज जब सेमेस्टर्स में अच्छे ग्रेड्स आ रहे हैं, तो पापा का विश्वास गहरा हुआ है। वह साथ में बैठकर वीडियो गेम्स खेलते हैं। जो व्यक्ति इंटरनेट मीडिया का विरोधी था, वह फेसबुक, ट्विटर का प्रयोग कर रहा।’ कह सकते हैं कि आपसी समझ बढ़ने से घर का माहौल सकारात्मक हो रहा है। सिर्फ एक-दूसरे की कमियां निकालने के बजाय स्वजनों के गुणों, उनके निश्छल प्रेम पर भी गौर करने लगे हैं लोग।
जिम्मेदारी का जगा एहसास: श्यामली का दिल्ली के एक अस्पताल में कोविड का इलाज चल रहा है। उनकी बहन भी आइसीयू में हैं। घर पर भी कुछ लोग आइसोलेशन में हैं। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी संभाल रही हैं श्यामली की 16 वर्षीय बेटी नूपुर। जिस बेटी को मां ने पढ़ाई के अलावा कभी घर के कामकाज में हाथ बंटाने को नहीं कहा था, जो कभी रसोई में चाय या मैगी बनाने तक नहीं गई, वह इन दिनों अपने दादा जी, डैडी और एक छोटे भाई के खाने-पीने, दवाइयों से लेकर सभी जरूरतों का ध्यान रख रही हैं। नियमित रूप से मां और मौसी की खबर भी लेती रहती हैं। बड़े ही आत्मविश्वास के साथ नूपुर कहती हैं, ‘मैं खुद को खुशकिस्मत मानती हूं कि सबके लिए जो संभव है, वह कर पा रही हूं। इस समय तो क्या अपने और क्या पराये, हर कोई एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आ रहा है। फिर यह तो मेरा अपना परिवार है। दादा जी तो हैरान हैं कि मैं उन्हें ब्रेड या मैगी नहीं, सिंधी करी-चावल, राजमा, पनीर सब खिला रही हूं।’ नूपुर ने बताया कि बेशक मॉम ने उन्हें रसोई में काम नहीं करने दिया, लेकिन वे यू-ट्यूब की मदद से या अपनी नानी से रेसिपी पूछकर अब सब बना लेती हैं। हां, एक-दो बार चाकू से हाथ कटते-कटते बचा है, जिसके बाद अधिक सतर्क रहने की कोशिश करती हूं।
सीखी रिश्तों की अहमियत: बीकॉम ऑनर्स की छात्रा अर्पिता बताती हैं, पहले पढ़ाई और कोचिंग क्लासेज़ की वजह से घरवालों के साथ समय नहीं बिता पाती थी। जल्दबाज़ी में खाना होता था। घर के कामों के लिए तो समय ही नहीं होता था। शुक्र है कि इस महामारी में घर में रहने के दौरान मुझे इन सब बातों की अहमियत का पता चला। मैंने परिवार के साथ अच्छा समय बिताया। हर सदस्य से बातचीत की। उनसे भी, जिनसे सालों से बातचीत न के बराबर होती थी। कह सकते हैं कि रिश्तों का महत्व और सब्र सिखा दिया है कोरोना काल ने। मुझे मैनेज करना आ गया कि कैसे पढ़ाई के साथ हम घर के हर छोटे-बड़े काम में भी हाथ बंटा सकते हैं? अर्पिता ने इस दौरान नई चीज़ें सीखीं। घर के हर छोटे-बड़े काम में मम्मी-पापा का सहयोग करना सीखा। प्रकृति के काफी क़रीब रहीं, तो प्लांटेशन करना भी सीखा। नये किस्म के पेड़-पौधे लगाने के साथ ही अब रोज़ाना पेड़ों में पानी देना इनकी दिनचर्या में शुमार हो गया है। वह कहती हैं कि अपने आसपास हरियाली देखकर मन को सुकून एवं खुशी मिलती है। मैंने बेकिंग करना और तरह-तरह का मीठा बनाना भी सीखा।
संयुक्त परिवार की लौटी बहार: कोरोना महामारी से संयुक्त परिवारों की अवधारणा को फिर से मज़बूती मिली है। रिश्तों के बीच की दूरियां कम हुई हैं। एक छत के नीचे पूरा परिवार हंसी-खुशी रह रहा है। सभी एक-दूसरे के काम में हाथ बंटा रहे हैं। आपस में सहयोग कर जिम्मेदारियां साझा कर रहे हैं। भारत में तो संयुक्त परिवार की संस्कृति ही रही है, लेकिन आज अमेरिका जैसे देश में भी बच्चे माता-पिता एवं दादा-नानी के साथ एक घर में रह रहे हैं। जानकारों के अनुसार, 19वीं सदी के बाद शायद ऐसा पहली बार हो रहा है। इससे अभिभावक जहां अपने बच्चों को बेहतर ढंग से समझ पा रहे हैं, वहीं बच्चों में भी अभिभावकों एवं घर के बुजुर्गों के प्रति सम्मान बढ़ा है। वे उनके संस्मरणों एवं अनुभवों को सुनने, उनके साथ वक्त बिताने में रुचि ले रहे हैं। हल्की-फुल्की आत्मीय नोक-झोंक या मनमुटाव के बावजूद परिवार में आपसी समझ बढ़ी है। कहा भी गया है कि परिवार से बड़ा कोई धन नहीं होता। पिता से बड़ा कोई सलाहकार नहीं। मां के आंचल से बड़ी कोई दुनिया नहीं होती। भाई से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता और बहन से बड़ा कोई शुभचिंतक नहीं, इसलिए परिवार के बिना जीवन की कल्पना ही कठिन है।
परिवार के करीब रहने का अलग है आनंद: बार्ड ऑफ ब्लड, वेब सीरीज़ के एक्टर अभिषेक ख़ान ने बताया कि शूटिंग और व्यस्त जीवनशैली के चलते घरवालों के साथ वक्त ही नहीं बिता पाता था। मैं लाकडाउन के दौरान जितनी बार भी घर रहा, वे मेरे लिए सुनहरे दिन रहे। सच में परिवार के साथ करीब रहने का अलग ही आनंद है। इस दौरान जहां हम सबने एक-दूसरे का ध्यान रखा, वहीं मिल बैठकर खाना-पीना सब एंजॉय किया। बीच में घर के एक सदस्य को कोरोना हो गया, तो हम उससे 14 दिनों तक फेसटाइम पर एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते थे, ताकि किसी को भी अकेलापन न खले। रोजे के दौरान हम साथ मिलकर खाते थे। नमाज पढ़ते थे, जबकि इन सबसे मैं कई सालों से दूर रहा था। साथ बैठने, बातें करने और साथ खाने का जो मज़ा है, वह अनुभव शब्दों में बयां नहीं कर सकता।
अपनों के साथ खुशियों के पल: टीवी एक्ट्रेस जसनीत कौर ने बताया कि पहले शो की शूटिंग और दिनभर की भागदौड़ में घर के सभी सदस्यों के साथ वक्त नहीं बिता पाती थी। अगर साथ होते भी थे, तो मन में काम की प्लानिंग ही चलती रहती थी। लेकिन अब जब पूरे परिवार के साथ घर पर हूं, तो क्वालिटी टाइम का लुत्फ़ ले रही हूं। इससे मेरे मन की सारी नकारात्मकता भी दूर हो गई है। हम सब हर काम खुशी-खुशी मिलकर करते हैं। सारे काम निपटाने के बाद सभी साथ में टीवी देखते हैं। खूब हंसी मज़ाक करते हैं। मूवी देखते समय एक-दूसरे की टांग खींचते हैं। खूब चिढ़ाते हैं। रात में सब एक साथ डिनर करते हैं, जबकि इस तरह का क्वॉलिटी टाइम बिताए हमें ज़माना हो गया था। मेरा जन्मदिन भी लाकडाउन में पड़ा, तो मौसी और नानी सभी ने मेरे लिए होममेड डिशेज़ तैयार कीं। नानी मां ने जहां कड़ा प्रसाद बनाया, तो वहीं मौसी ने चाइनीज। यहां तक कि दोस्त की मम्मी ने डोसा बैटर बनाकर भेजा, तो मां ने बॉम्बे चाट और स्नैक्स बनाए। मेरा यह लाकडाउन बर्थडे कभी न भूल पाने जैसा रहा, क्योंकि इससे पहले मेरे बर्थडे में घर के खाने को इतनी तवज्जो नहीं दी जाती थी।
बच्चों से आती हैं खुशियां: कनाडा के मोंट्रियल की वर्किंग मदर मधु साहनी ने बताया कि बच्चों से परिवार में खुशियां आती हैं। कोविड-19 ने बच्चों को मानसिक रूप से प्रभावित किया है। वे बुझे-बुझे से रहने लगे हैं। स्कूल जाने पर वे अपने दोस्तों से मिल पाते हैं। यहां उनके स्कूल सितंबर महीने से ही खुले हैं। क्लास में कोई बच्चा या उसके परिवार के सदस्य कोरोना से ग्रस्त होते हैं, तो दो हफ्ते के लिए उस क्लास को ऑनलाइन कर दिया जाता है। अपनी बात करूं, तो इन दिनों हम बच्चों से खूब बातें कर रहे हैं। बड़ा बेटा पढ़ना जानता है, तो वह खूब किताबें पढ़ता है। छोटा अभी पहली कक्षा में है, तो मोहल्ले में अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलता है। बच्चों में एक आदत पक्की हो गई है कि वे स्कूल या बाहर से आकर पहले हाथ-मुंह धोना या नहाना नहीं भूलते हैं। यह सब बिना बोले होता है यानी वे काफी जिम्मेदार बन गए हैं। हां, थोड़ा धीरज जल्दी खो देते हैं, गुस्सा आ जाता है। बावजूद इसके, मेरी तबीयत खराब होने पर या परेशान देखने पर बड़ा बेटा मुझे साहस देता है। मन बहलाता है। नानी से और दादा जी से भी खूब बातें हो रही हैं।