सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को राष्ट्रपति और राज्यपालों के बिलों पर हस्ताक्षर करने के लिए डेडलाइन लागू करने वाली याचिका पर सुनवाई हुई। इस दौरान महाराष्ट्र, गोवा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पुडुचेरी समेत भाजपा शासित राज्यों के वकीलों ने कहा कि बिलों पर मंजूरी देने का अधिकार कोर्ट का नहीं है।
CJI बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई की। महाराष्ट्र की ओर से सीनियर वकील हरीश साल्वे ने कहा,
बिलों पर मंजूरी देने का अधिकार सिर्फ राज्यपाल या राष्ट्रपति को है। संविधान में डीम्ड असेंट यानी बिना मंजूरी किए भी मान लिया जाए कि बिल पास हो गया जैसी कोई व्यवस्था नहीं है।
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज (उत्तर प्रदेश और ओडिशा की तरफ से) ने कहा कि राष्ट्रपति और गवर्नर को बिलों पर मंजूरी देने से पहले पूरी तरह स्वायत्तता और विवेक का अधिकार है। अदालतें कोई समय-सीमा नहीं तय कर सकतीं।
तमिलनाडु से शुरू हुआ था विवाद…
ये मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।
इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और 14 सवाल पूछे थे।
गोवा सरकार की तरफ से पेश एएसजी विक्रमजीत बनर्जी ने कहा- जब तक गवर्नर की मंजूरी नहीं मिलती, तब तक कोई बिल कानून नहीं बन सकता। संविधान में डीम्ड असेंट का कोई प्रावधान नहीं है।
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि डीम्ड असेंट सिर्फ एक काल्पनिक विचार है, लेकिन इसे वास्तविक कानून नहीं माना जा सकता।
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, संविधान में कुछ जगह डीम्ड (मान लिया जाए) का प्रावधान है, लेकिन वहां समय-सीमा साफ लिखी होती है। उदाहरण के लिए आर्टिकल 198(5) में लिखा है कि अगर राज्य विधानसभा से पास हुआ मनी बिल 14 दिन में विधान परिषद से वापस नहीं आता तो उसे दोनों सदनों से पास मान लिया जाएगा।
छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से सीनियर वकील महेश जेठमलानी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल के अपने फैसले में (तमिलनाडु के मामले में) संविधान के आर्टिकल 200 में ऐसा प्रावधान जोड़ दिया था जो असल में लिखा ही नहीं है।
महाराष्ट्र सरकार की ओर से हरीश साल्वे ने कहा कि आर्टिकल 200 (गवर्नर के बिलों पर अधिकार) में कोई समय-सीमा तय नहीं है। कभी किसी बिल पर फैसला 15 दिन में हो सकता है और कभी 6 महीने भी लग सकते हैं। यह सब राजनीतिक चर्चाओं पर भी निर्भर करता है।
मामले की अगली सुनवाई 28 अगस्त को होगी। इस दिन तमिलनाडु और केरल सरकार के वकील अपनी दलीलें पेश करेंगे।
इससे पहले CJI बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने 19, 20 और 21 अगस्त को लगातार तीन दिन मामले की सुनवाई हुई थी। बेंच में CJI के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी एस नरसिम्हा और ए एस चंदुरकर शामिल हैं।
21 अगस्त को केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में राज्यपालों के लिए समयसीमा तय करने का विरोध किया और कहा कि यह कोर्ट का नहीं, संसद का काम है। केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, ‘जब अदालतों के लिए मामलों पर फैसला करने की कोई समय सीमा तय नहीं है, तो राज्यपालों के लिए ऐसा क्यों?’
केंद्र ने कहा कि अगर राज्यपाल विधेयकों पर कोई फैसला नहीं लेते हैं तो राज्यों को कोर्ट की बजाय बातचीत से हल निकालना चाहिए। सभी समस्याओं का समाधान अदालतें नहीं हो सकतीं। लोकतंत्र में संवाद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हमारे यहां दशकों से यही प्रथा रही है।