पढ़िये- कैसे जवाहर लाल नेहरू ने पता लगाया अपने मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन

ताशकंद जाने से ठीक पहले आधी रात को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री कमलापति त्रिपाठी को इतना ही समय दे पाए कि 10, जनपथ के अहाते के बाहर बने रास्ते पर खड़े-खड़े दोनों की बात हो पाई। कमलापति ने उन्हें सलाह दी कि दो ऊनी ट्राउजर आप खरीद लो, वहां बहुत ठंड होगी। लालबहादुर शास्त्री का जवाब था, ‘पंडित जी इसके लिए पैसा कहां से आएगा?’ उनके निजी सचिव रहे राजेश्वर प्रसाद ने ‘डेज विद लालबहादुर शास्त्री’ में लिखा ‘वाणिज्य व उद्योग मंत्री रहते हुए शास्त्री जी विदेश यात्रओं से बचते थे क्योंकि वो धोती पहनते थे और ट्राउजर से बचते थे, पहली बार 1961 में राष्ट्रपति भवन में इंग्लैंड की महारानी के डिनर में पहनना पड़ा था।’

10, जनपथ था पहला पीएम आवास

नई पीढ़ी 10, जनपथ को सोनिया गांधी के घर के तौर पर जानती है, मन में सवाल उठ सकता है कि अगर 10, जनपथ में शास्त्री जी रहते थे, तो उनके मेमोरियल (स्मृति-स्थल) कौन से घर को बनाया गया है। दरअसल 10, जनपथ शास्त्री के समय ही पीएम आवास बनाया गया था और यहीं लान में शास्त्री ने हल चलाकर गेहूं उगाए थे। ना तो शास्त्री, नेहरू का 30 एकड़ का तीन-मूíत भवन लेना चाहते थे और ना नेहरू के करीबी देना ही। शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी जब बतौर पीएम आवास देखने यहां आईं, तो बस एक लाइन बोलीं, ‘मिडिल क्लास’। ये अलग बात है कि यहीं राजीव गांधी पीएम बनने के बाद तब रहने आ गए, जब इंदिरा गांधी के घर एक, सफदरजंग रोड को उनका स्मृति-स्थल बना दिया गया।

शास्त्री यहां जिस हिस्से में रहते थे, उसको उनका स्मृति-स्थल बनाने के लिए शास्त्री परिवार ने लंबी लड़ाई लड़ी, तब अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी मंजूरी दी और 2005 में मनमोहन सिंह ने 10, जनपथ से अलग करके एक, मोतीलाल नेहरू प्लेस के पते पर इसको देश को समर्पित किया। जहां आप उनका बैडमिंटन कोर्ट से लेकर उनके बर्तन, कपड़े, पूजा घर और उनकी वो फिएट कार भी देख सकते हैं, जिसका लोन ललिता शास्त्री ने चुकाया था।

अनशन की चेतावनी के बाद जागीं इंदिरा

ललिता को उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में करने के लिए भी लड़ना पड़ा। उनका पार्थिव शव जब दिल्ली लाकर इसी 10, जनपथ में रखा गया तो अचानक कांग्रेसियों के एक गुट की मांग थी कि शास्त्री का अंतिम संस्कार उनके गृहनगर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हो, इंदिरा गांधी ने भी कामराज से कहा। ललिता ने दिल्ली में अंतिम संस्कार करने और उनकी समाधि ‘विजय घाट’ पर उनका ‘नारा जय जवान, जय किसान’ लिखवाने की मांग के साथ आमरण अनशन की धमकी दी। तब इंदिरा राजी हुई थीं। जब वो होम मिनिस्टर थे, तब उनको ‘बिना होम का मिनिस्टर’ बोला जाता था, क्योंकि दिल्ली में उनका अपना घर नहीं था, या तो किराए के घर में रहते थे, या सरकारी में। लेकिन जब कामराज योजना में शास्त्री से मंत्रालय ले लिया गया तो उसी शाम शास्त्री से मिलने पहुंचे पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा ‘बियोंड द लाइंस’ में लिखते हैं कि, ‘शास्त्री जी के पूरे घर में बस ड्राइंग रूम की बत्ती जली थी, बोले- अब बिल खुद देना पड़ेगा’। सचिव राजेश्वर को शास्त्री ने एक, यार्क प्लेस से पत्र में बताया, ‘जल्द छोटे घर में शिफ्ट हो जाऊंगा, अब केवल एक सब्जी बनाने लगे हैं, दूध भी कम किया है, कपड़े खुद धोने लगे हैं। रामजी (छोटे दामाद) की कार में पेट्रोल मैं डलवा देता हूं’, एक दोहा भी लिखा- ‘हारिए ना हिम्मत बिसारिए ना राम को, जाहि विधि रखें राम ताहि विधि रहिए’।

किसी को पता ही नहीं था शास्त्री का जन्मदिन

सांसद के वेतन 500 रुपये में खर्च चलाना मुश्किल हो गया तो कुलदीप नैयर ने उनके लेख अखबारों में छपने की व्यवस्था करवाई, प्रति लेख 500 रुपये मिलने लगे, चार जगह छपता तो 2000 रुपये मिल जाते थे। दो लेख ही छपे कि जवाहर लाल नेहरू को पैरालिसिस अटैक पड़ा और शास्त्री को बिना विभाग का मंत्री बना दिया गया। शास्त्री की विनम्रता देखिए, एक बार राजघाट पर वो गांधी जयंती पर पहुंचे, उनका भी जन्मदिन था, जो 11 साल मंत्री रहने के बाद भी किसी को नहीं पता था। अचानक जवाहर लाल नेहरू ने पूछा, सुना है आपका भी जन्मदिन है? शास्त्री का जवाब था कि ‘गांधीजी का जन्मदिन है तो हर भारतीय का जन्मदिन है’।

अमिताभ बच्चन परिवार का दिल्ली में जो अपना घर है ‘सोपान’, वो गुलमोहर पार्क सोसायटी शास्त्री का ही पत्रकारों को उपहार थी। दरअसल एएनआइ चेयरमेन प्रेमप्रकाश और बीसी सक्सेना, ने पत्रकारों के लिए उनसे कापरेटिव हाउसिंग सोसायटी के लिए जमीन मांगी तो शास्त्री का सवाल था, ‘आप चला पाओगे इसे? बहुत बदनामी हो जाती है, ऐसे काम करने में’। खैर, चार एसोसिएशन मिलीं और 350 प्लाट्स आवंटित हुए, जिनमें से एक फ्री-लांस जर्नलिस्ट के तौर पर तेजी बच्चन को भी मिला। बीसवीं सदी के सातवें दशक इसमें काफी महफिलें जमीं, बच्चन परिवार ने इसमें कई दीवाली मनाईं। लेकिन इसी दिल्ली से वो तब परेशान होकर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जाने की सोचने लगे थे, जब नेहरू ने इंटरनेशनल लेबर कान्फ्रेंस, केन्या में उनके सुझाए नेता आबिद अली का नाम खारिज कर दिया। उन्होंने कुलदीप नैयर से कहा था, ‘मैं दिल्ली में और ज्यादा रहा तो पंडित जी से ही विवाद हो जाएगा, ऐसा करने के बजाय मैं राजनीति छोड़ना बेहतर समझूंगा’ लेकिन इसी दिल्ली ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया।