ताकतवर पड़ोसी अगर सिरदर्द होता है तो कमजोर पड़ोसी गले में पड़ी जिम्मेदारी। जब बात देशों की हो तो मामला सिर्फ उनकी सरकारों तक सीमित नहीं रह जाता। उसका असर जनता तक पहुंचता है। शक्तिशाली पड़ोसी मुल्क से खराब संबंधों का अर्थ है जंग के खतरे की आशंका में आम लोगों का जीना मुहाल हो जाना। जबकि राजनीतिक और आर्थिक कारणों से लाचारी ङोलते पड़ोसी एक अलग किस्म की मुसीबत और दुविधा सामने लाते हैं। भारत के लिए इसे संयोग कहें या दुर्योग कि वह दोनों तरह के पड़ोसियों से घिरा हुआ है। एक तरफ चीन-पाकिस्तान जैसे बुरी नीयत वाले मुल्क हैं, जो सरहद पर कोई न कोई समस्या खड़ी किए रहते हैं। तो दूसरी तरह नेपाल-बांग्लादेश जैसे कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश हैं, जो हमेशा मदद के तलबगार रहते हैं।
तमाम राजनीतिक और सामाजिक कारणों से ढेरों उठापटक ङोलते रहने के बाद एक अन्य पड़ोसी श्रीलंका हाल के दशक में स्थिरता की तरफ बढ़ता प्रतीत हो रहा था, लेकिन बीते कुछ वर्षो में वहां जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में नीतिगत बदलाव किए गए, उनके चलते वह एक समस्याग्रस्त पड़ोसी के रूप में सामने आ गया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर भारत ने श्रीलंका की बड़े पैमाने पर मदद न की तो आर्थिक तौर पर वह देश बर्बाद हो जाएगा। निश्चित ही भारत सरकार अपने एकदम पड़ोस में बसे इस द्वीपीय देश को इस तरह तबाह होते नहीं देखना चाहेगी। जहां तक मुमकिन होगा, वह श्रीलंका की मदद करेगी, लेकिन सवाल है कि आखिर श्रीलंका की दुर्गति क्यों हुई? और क्या अब कोई रास्ता ऐसा बचा है, जहां से श्रीलंका को खुशहाली की ओर लौटाया जा सके?
ऊपरी तौर पर लगता है कि कोरोना ने मुख्यत: पर्यटन पर केंद्रित श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था का कचूमर निकाल दिया। पर्यटक नहीं आए तो देश में विदेशी मुद्रा का अकाल पड़ गया। इससे आयात ठप हो गया। रोजमर्रा के जरूरी सामान की कीमत नहीं चुका पाने की श्रीलंकाई सरकार की मजबूरी इस रूप में सामने आई कि पूरे देश में दवाइयों, पेट्रोल-डीजल, दूध और रसोई गैस की किल्लत हो गई। ईंधन की आपूर्ति का असर बिजलीघरों पर भी पड़ा है। इस कारण कारखानों और घरों की बिजली आपूर्ति में भारी कटौती करनी पड़ रही है। उधर राशन की चीजों में दूध, चावल-चीनी आदि के भाव ऐसे हैं कि पांव के नीचे से जमीन निकल जाए। चावल-चीनी 300 रुपये प्रति किलोग्राम और दूध 1,600 रुपये प्रति किलोग्राम पहले ही हो चुके हैं। गारंटी नहीं कि ये भाव यहीं टिके रहेंगे। हालात ये हैं कि इनके यहां से भी कई गुना ज्यादा हो जाने की आशंकाएं हैं।
जरूरी चीजों की किल्लत ऐसी है कि घंटों लाइन में खड़े होने पर भी सामान मयस्सर नहीं हो रहे। हाल में लाइन में लगे तीन बुजुर्गो की मौत ने काफी सुर्खियां बटोरीं, लेकिन कोई चारा न देखकर नागरिकों ने भारत की तरफ कूच करना शुरू कर दिया। इससे भारत में शरणार्थियों की संख्या और इनकी समस्या में इजाफे के साफ संकेत मिलते हैं। दावा किया जा रहा है कि पूरे जीवन की अपनी जमापूंजी बटोरकर तस्करों के हवाले कर रहे हैं, ताकि वे किसी तरह उन्हें भारत पहुंचा दें।
आर्गेनिक खेती बनी गले की फांस : श्रीलंका के मौजूदा संकट के पीछे जिन कारणों को गिनाया जा रहा है, उनमें विदेशी कर्ज से लेकर आर्गेनिक खेती पर जोर देने की हालिया नीतियों का मुख्य योगदान हो सकता है। विदेशी कर्ज रिकार्ड ऊंचाई पर होने के साथ श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार पाताल में पहुंच चुका है। नतीजे में श्रीलंकाई मुद्रा के पतन ने हालात ऐसे बनाए हैं कि बाहर से पेट्रोल-डीजल और खाने-पीने की चीजें खरीदना मुश्किल हो गया है। इससे निपटने के लिए श्रीलंका सरकार ने देश में आर्थिक आपातकाल घोषित कर दिया है, लेकिन जनता किसी आर्थिक मुसीबत को तब महसूस करती है, जब रोजमर्रा की जरूरतों के सामानों की या तो भीषण किल्लत हो जाए या फिर उनकी कीमतें आसमान छूने लगें। श्रीलंका में ये दोनों स्थितियां एक साथ पैदा हुईं। इनके लिए सिर्फ एक कारण सबसे अहम माना गया।
असल में पिछले वर्ष श्रीलंका की सरकार ने एक नीतिगत फैसला लेते हुए खेती में रासायनिक खादों के इस्तेमाल को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। इसके स्थान पर देश में आर्गेनिक खेती करने का आह्वान किया गया। पर्यावरण और इंसानी सेहत के नजरिये से यह फैसला सराहनीय है, लेकिन इसमें दूरदर्शिता का साफ अभाव था। इस तब्दीली को चरणबद्ध तरीके से और वैकल्पिक समाधान देते हुए लागू करने के बजाय एक झटके में खेती का स्वरूप बदलने की नीति के चलते श्रीलंका के कृषि क्षेत्र का उत्पादन आधा रह गया। ऐसे में नागरिकों को दूध, चीनी, चावल तक के लाले पड़ गए।
चीनी कर्ज की कड़वी चाशनी : वैसे तो कोरोना काल में पर्यटकों का आना-जाना ठप हो जाने से कई दूसरे देशों की हालत भी खस्ता है, लेकिन उन पर न तो श्रीलंका की तरह भारी-भरकम चीनी कर्ज लदा हुआ है और न ही विदेशी मुद्रा का उनका भंडार पूरी तरह खाली हुआ है, पर श्रीलंका के अंदरूनी हालात और उसकी डगमगाती करेंसी ने उन देशों की सरकारों को भी आशंकित कर दिया है, जहां से थोड़े-बहुत पर्यटक इस द्वीपीय देश की सैर को आते रहे हैं। हाल में कनाडाई सरकार ने एडवाइजरी जारी कर अपने नागरिकों को श्रीलंका की यात्रा से परहेज बरतने को कहा है, लेकिन इस प्रसंग में जो सबसे अहम चिंता श्रीलंका के हर मोर्चे पर नाकाम होने के मुख्य कारण के रूप में सामने आई है, वह श्रीलंका में चीनी कर्ज से चलाई जाने वाली परियोजनाएं हैं। श्रीलंका पर वैसे तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और भारत-जापान आदि से करीब 35 अरब डालर का कर्ज चढ़ा हुआ है, लेकिन इसमें ज्यादा दोष चीनी कर्ज का माना जाता है जिसने श्रीलंका के हाथों के तोते उड़ा दिए हैं। अकेले चीन का श्रीलंका पर पांच अरब डालर से ज्यादा का कर्ज है।
यह कर्ज वहां विभिन्न परियोजनाओं के निर्माण और संचालन के लिए चीन से लिया गया, लेकिन समस्या यह है कि कर्ज लेकर घी पीने की इस सोच के चलते यह ऋण गले की फांस बन गई है। ऐसा इसलिए हुआ कि चीन ने विस्तारवादी नीतियों के तहत श्रीलंका के रास्ते भारत को घेरने के लिए जिन परियोजनाओं का निर्माण किया है, उनसे श्रीलंका को कोई कमाई नहीं हो रही है। ऐसे में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खत्म होने के कगार पर पहुंच गया है। हालत यह है कि उसे वर्ष 2022 में सात अरब डालर का विदेशी कर्ज चुकता करना है, लेकिन विदेशी मुद्रा के उसके खजाने में करीब 1.5 अरब डालर ही बचे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि श्रीलंका के इस पतन के पीछे राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव हैं। लगभग दो साल पहले बिखरे विपक्ष का फायदा उठाकर सिंहली राष्ट्रवाद और बेहतर भविष्य के आह्वान के साथ सत्ता पर काबिज हुए राजपक्षे परिवार ने देश की जनता को तरक्की के कई सब्जबाग दिखाए, लेकिन उन पर अमल की किसी ठोस योजना को यह परिवार पेश नहीं कर सका।
हालांकि पिछले दो वर्षो में चीनी परियोजनाओं से बाहर निकलने की कोशिशें यह समझते हुए की गईं कि अंतत: ये देश को खोखला कर देंगी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। अब देखना यह है कि भारत की ओर से समय-समय पर मिलने वाली मदद के बल पर श्रीलंका किस ऊचाई तक जा सकता है। हालांकि अगर उसने एक बार फिर चीन की गोद में जा बैठने की गलती की तो तबाही के रास्ते से उसे वापस ला पाना आसान नहीं होगा। भारत भी श्रीलंका की एक हद तक ही मदद कर सकता है। इस साल भारत उसे 2.4 अरब डालर की मदद दे चुका है, यह सहायता अनंतकाल तक जारी नहीं रह सकती। भारत श्रीलंका की माली हालत सुधारने के लिए अपना पूरा खजाना खाली नहीं कर सकता। ऐसे में अपने राजनीतिक संघर्षो से उबरने, कोरोना के बाद अब खुल रहे माहौल में पर्यटन को बढ़ावा देने और चीन की दखलंदाजियां कम करने के साथ उसे स्वावलंबन की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है।
श्रीलंका का अस्थिर हो जाना भारत को किस तरह प्रभावित कर सकता है- शरणार्थियों की आमद इसका एक स्पष्ट उदाहरण है। आर्थिक आपातकाल लगाए जाने के बाद से खाने-पीने की चीजों की किल्लत और महंगाई सिर पर पहुंचने के कारण आम श्रीलंकाइयों के सामने जिंदगी बचाने का संकट है। ऐसे में उन्हें जो सबसे बेहतर उपाय लगता है, वह भारत में शरण लेना ही है। वैसे तो दुनिया भर में कई देशों-अर्थव्यवस्थाओं के डगमगाने से लाखों लोगों ने हाल के वर्षो में पलायन किया है और दूसरे देशों में जाकर शरण मांगी है, पर एक आबादी बहुल देश के रूप में भारत के पास पड़ोसी देश के नागरिकों को शरण देते रहने के बहुत सीमित विकल्प हैं। श्रीलंका से आने वाले लोगों में से ज्यादातर के पास पासपोर्ट जैसी जरूरी चीज भी नहीं है।
ऐसे में इन्हें अवैध प्रवासी माना जा सकता है। मानवीय आधार पर इन्हें कुछ समय तक रहने की छूट भी दी जा सकती है, लेकिन आखिरकार इन्हें श्रीलंका ही लौटाना होगा। हम अपने रोजगारों और अन्य संसाधनों पर शरणार्थियों के रूप में ज्यादा भार वहन करने की स्थिति में नहीं हैं। एक समस्याग्रस्त देश से आ रहे शरणार्थी खुद हमारे लिए समस्या उत्पन्न कर सकते हैं। आर्थिक मदद करना ठीक है, लेकिन एक डूबती नाव को बचाने के लिए अपने जहाज को ही डुबो देना समझदारी तो नहीं होगी।