चुनाव सुधार सतत प्रक्रिया है। चुनाव आयोग, न्यायपालिका, सिविल सोसायटी एवं भारत सरकार सभी ने सुधारों के इस क्रम में योगदान दिया है और इसे आगे बढ़ाया है। आजादी के तुरंत बाद चुनावी व्यवस्था पूरी तरह से नई थी। हर मतदान केंद्र पर उस क्षेत्र में खड़े उम्मीदवारों की संख्या के बराबर मत पेटियां लेकर मतदान कराया जाता था। आज हम आधुनिकतम चुनावी उपकरणों इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन और वोटर वेरीफाई बिल पेपर आडिट ट्रेल (वीवीपैट) से चुनाव कराते हैं। जिस देश में 60 करोड़ से ज्यादा वोट पड़ते हैं, वहां मतगणना शुरू होने के कुछ ही घंटों में परिणाम सामने आ जाते हैं।
आचार संहिता का उल्लंघन
हमारी यह व्यवस्था पूरे विश्व के लिए आश्चर्य का विषय है, क्योंकि कई लोकतंत्रों में आज भी मतगणना में कई दिन से लेकर कुछ हफ्ते तक का समय लग जाता है। मतदान में पारदर्शिता और आचार संहिता के उल्लंघन पर नजर के लिए भी मजबूत व्यवस्था की गई है। इन सब व्यवस्थाओं के बावजूद अभी कुछ क्षेत्रों जैसे चुनाव के लिए चंदा एकत्र करने, चुनावी खर्च को सीमा में रखने, पेड न्यूज, फेक न्यूज और इंटरनेट मीडिया के दुरुपयोग आदि पर नियंत्रण की दिशा में अहम कदम उठाने की आवश्यकता है। हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कह दिया था कि हमारे लोकतंत्र में कोई भी नेता जब एमएलए या एमपी बनने के लिए राजनीतिक सफर की शुरुआत करता है, तो उसकी शुरुआत एक झूठ से होती है।
चंदे का विवरण
लेखा आयोग के समक्ष प्रस्तुत चुनावी खर्च का लेखा-जोखा झूठ होता है। आवश्यकता इस बात की है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे और चुनावी खर्च की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी हो। चुनाव आयोग ने हाल ही में अनुशंसा की है कि नकद चंदा लेने की अधिकतम सीमा 20,000 से घटाकर 2,000 रुपये कर दी जाए, क्योंकि इसमें दान देने वाले का विवरण नहीं रखना पड़ता है और न ही चुनाव आयोग को इसके बारे में बताना पड़ता है। सीमा 2,000 रुपये हो जाने से, इससे अधिक के चंदे का विवरण चुनाव आयोग को मिल सकेगा।
राजनीति में काले धन का प्रयोग
यह कदम तभी कारगर सिद्ध हो सकता है, जब कार्पोरेट घरानों द्वारा दिए जाने वाले करोड़ों रुपये के चंदे का विवरण भी सार्वजनिक हो। अभी इलेक्टोरल बांड्स में भी पारदर्शिता नहीं है। चुनावी खर्च की सीमा भी मात्र उम्मीदवारों के चुनावी खर्च के संदर्भ में है। राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च पर कोई सीमा या नियंत्रण नहीं है। इसका दुष्परिणाम होता है कि एक विधानसभा क्षेत्र में उम्मीदवार के चुनावी खर्च की सीमा 28 लाख रुपये होने पर भी देखकर लगता है कि करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। यदि राजनीतिक दल के चुनावी खर्च पर भी सीमा लगाई जाए तो यह भ्रांति उत्पन्न नहीं होगी। प्रशंसा की दृष्टि से देखी जाने वाली भारतीय चुनाव व्यवस्था इन सुधारों से और भी पारदर्शी व विश्वसनीय बनकर सामने आएगी।