मेडिकल और इंजीनियरिंग के अलावा भी हैं करिअर ऑप्शंस:स्कूलों में भी यही भावना ‘मैथ्स-साइंस वाले बच्चे ही परफेक्ट’

करिअर फंडा में स्वागत!

भारत में करिअर चुनना एक पारिवारिक निर्णय है, व्यक्तिगत नहीं। बच्चा कौन सा करिअर अपनाना चाहता है, यह उसके परिवार पर निर्भर करता है।

यह एक तरह की प्रोफेशनल जाति व्यवस्था है: अधिकतर डॉक्टरों के बच्चे डॉक्टर बनाएं जाते हैं, आर्मी बैकग्राउंड के बच्चे आर्मी में चले जाते हैं। क्योंकि माता-पिता को एक देखा-भाला करिअर सुरक्षित राह लगती है, और बच्चा भी शुरू से उसी तरह के पारिवारिक माहौल में पला बढ़ा होता है तो उसके लिए उस क्षेत्र में करिअर बनाना आसान होता है।

यदि बच्चा खुद भी मन से ऐसा ही चाहता है तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। समस्या तब है, जब बच्चे की उस क्षेत्र में रुचि ना हो और परिवार वालों द्वारा दबाव बनाया जाए।

आधुनिक, क्रान्तिकारी गायक ‘राहगीर’ ने क्या शानदार गाया है कि ‘किसी मल्लाहे का बेटा, जब नाव डुबाता है, घर वालों की नजरों में वह नाम डुबाता है।’

ऐसा क्यों हुआ भारत में

1950 के दशक में भारत एक गरीब, कम जीवन-प्रत्याशा वाला देश था और अधिकतर जनता डॉक्टरों को भगवान मानती थी। सत्तर के दशक तक, भारत में आधुनिकीकरण की शुरुआत के साथ औद्योगीकरण (और इसीलिए इंजीनियर्स की) की सख्त जरूरत थी। 1990 के उदारीकरण ने इंजीनियरिंग स्नातकों की मांग को चरम पर पंहुचा दिया।

हमारे माता-पिता की पीढ़ी, जो औसत सामाजिक स्तर से थी, के लिए रुचि का व्यवसाय समझ से परे की बात थी, उनके लिए व्यवसाय यानी जो आपको भोजन, सुरक्षा और सामाजिक सम्मान दे। आश्चर्य की बात नहीं कि कोई भी माता-पिता अपने बच्चे के बड़े होकर डॉक्टर बनने की उम्मीद करेंगे।

लेकिन केवल माता-पिता ही दोषी नहीं है, भारतीय कंपनियों ने भी उनका साथ दिया और एजुकेशन सिस्टम भी दोषी है।

अपनी 10वीं कक्षा के दिनों को याद करें किन स्टूडेंट्स को मैथ्स और बायो सब्जेक्ट्स लेने दिए गए थे और किंन्हें कॉमर्स और आर्ट्स। हाई डिमांड के कारण, स्कूल केवल टॉप-स्कोरर्स को बायो और मैथ्स स्ट्रीम प्रदान करते थे (या हैं)। इससे समाज में ऐसा भ्रम बना की यदि किसी स्टूडेंट ने मैथ्स और सांइंस सब्जेक्ट्स नहीं लिए हैं तो वे अच्छे स्टूडेंट नहीं थे जिसे एम्प्लॉयर्स ने भी माना। जिससे ऐसे स्टूडेंट्स की नौकरी पाने की क्षमता और और अंततः सामाजिक स्तर पर फर्क पड़ा।

10वीं कक्षा तक स्टूडेंट की उम्र पंद्रह वर्ष के आस-पास होती है और वह अपने निर्णय खुद लेने के लिए परिपक्व भी नहीं होता है। इसलिए वह इस पूरे खेल में सबसे अधिक इनोसेंट व्यक्ति होता है जिसके लिए माता-पिता और स्कूल मिलकर निर्णय लेते हैं।

आज भी अधिकांश भारतीय माता-पिता मानसिक रूप से 1980 के दशक में ही हैं।

इससे हमारे समाज को क्या फायदा और नुकसान हुआ

सुन्दर पिचई (अल्फाबेट), सत्या नडेला (माइक्रोसॉफ्ट), पराग अग्रवाल (ट्विटर), शांतनु नारायण (एडोबी), अरविन्द कृष्णा (IBM), इंद्रा नूयी (पेप्सिको) आदि बड़ी लिस्ट है, आदि सभी इन कंपनियों के सबसे बड़े पदों पर या तो हैं या रह चुके हैं, यह फायदा है। और इंजीनियरिंग शिक्षा की जबरदस्त मांग के कारण, धड़ल्ले से खुले इंजीनियरिंग कॉलेजेस के कारण हुए इंजीनियरिंग शिक्षा के डीग्रेडेशन के चलते भारत के आधे-से-अधिक इंजीनियर्स का एम्प्लॉयबल ना होना सिक्के का दूसरा पहलू है। मेडिकल शिक्षा में हालांकि डीग्रेडेशन उतना नहीं दिखाई देता लेकिन वहां कॉम्पिटिशन का स्तर बहुत अधिक है जो उम्मीदवारों को स्युसाईड, नशे की आदत इत्यादि के लिए प्रेरित करता है।

इससे बड़ा नुकसान मानसिक या सोच के स्तर पर है। यानी जब हम अपने बच्चों को लीक पर बने बनाए करिअर पाथ पर करिअर बनाने के लिए दबाव डाल रहे होते हैं, तो हम क्या कर रहे होते हैं? क्या हम कुएं के मेंढक, को कुएं में ही रहने की सलाह नहीं दे रहे होते? क्या हम सफलता को एक ही डायमेंशन में नही देख रहे होते? यदि सभी पेरेंट्स ने ऐसा किया होता तो हमें सचिन तेंदुलकर, विश्वनाथन आनंद और एआर रहमान तो नहीं ही मिल पाते।

आज का खतरनाक सच ये हो गया है कि स्कूल एडमिशन के समय सबसे बड़ा सेलिंग पॉइंट है कि कितने बच्चे 12वीं में इंजीनियरिंग मेडिकल एग्जाम्स क्लियर कर पाए!

मंजिलें और भी हैं राहें और भी

धरातल पर खड़े होकर देखे तो भारत में हम जहां एक ओर इंजीनियर्स की बेरोजगारी का रोना रोते हैं हमारे पास देश के कई हिस्सों में मैथ्स पढ़ाने के टीचर्स, देश में सोशल स्टडीज के टीचर्स, लॉयर्स और जज, आर्मी के बड़े पदों पर रिक्तियां, प्रोफेशनली एक बार में ठीक से काम कर देने वाले प्लम्बर्स और इलेक्ट्रीशियन्स आदि सभी का अभाव है। और यदि आप ध्यान से देखें तो पाएंगे की जो इन कामों में पारंगत हैं उनके पास काम और अवसर की कोई कमी भी नहीं है।