भाषा और हाव-भाव का गहरा संबंध है। बातचीत का सामने वाले व्यक्ति पर कितना असर पड़ेगा, इस बात का आपकी भाव-भंगिमा से अंदाजा लगाया जा सकता है। कमजोर भाषा को भी बॉडी लैंग्वेज से प्रभावी बनाया जा सकता है।
अमेरिका की वेंडरबिट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर की शेरिस क्ला कहती हैं- बॉडी लैंग्वेज श्रोता और वक्ता के बीच सेतू की तरह है, जो एक-दूसरे को जोड़े रखता है। शोधकर्ता मेलिसा सी डफ कहती हैं कि अल्जाइमर के मरीजों के लिए बॉडी लैंग्वेज बहुत मददगार होती है। हमारे हाथ बातों की तीव्रता के अनुसार चलते हैं। कोई दूर से ही बिना हमारी बात सुने ही हाथों को देखकर जान सकता है कि हम शांत हैं या गुस्से में।
हाथों के साथ आंखों में भी भाव नजर आते हैं
शिक्षक क्लास में पढ़ाते वक्त बॉडी लैंग्वेज का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। भाषण देते समय नेता भी कुछ ऐसा ही करते हैं। भाषा सीखने से पहले बच्चा भाव-भंगिमाओं से ही अपनी बात कह लेता है। इशारे से वे बातें कही जा सकती हैं, जो कई बार शब्दों से बयां नहीं हो पातीं। मूक-बधिर लोगों की भाव-भंगिमा से आप उनके मन की बात समझ लेते हैं। जब हम कुछ कहते हैं तो हाथ के साथ-साथ आंखों में भी वही भाव नजर आते हैं।
वक्ता को बॉडी लैंग्वेज का पता नहीं चल पाता
भाषाविज्ञानी और मनोविज्ञानी कहते हैं- बोलने वाला आमतौर पर अपनी बॉडी लैंग्वेज समझ नहीं पाता। उसे यह नहीं पता चलता कि बोलते वक्त वह अपने हाथों का कैसे इस्तेमाल कर रहा है। जबकि सुनने वाले पर उसकी भाव-भंगिमा और हुलिए का सबसे ज्यादा प्रभाव होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि भाषा आसानी से बदली जा सकती है, लेकिन बॉडी लैंग्वेज बदलना बहुत मुश्किल होता है। हालांकि लंबे समय तक प्रैक्टिस से इसे भी बदला जा सकता है।