दिन में 12 घंटे मुर्दों के बीच रहती हूं:पति का एक्सीडेंट हुआ तो कोई पूछने नहीं आया; 2 बेटियों के पति शराबी निकले; वो ससुराल नहीं जाती

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, महिलाएं श्मशान घाट नहीं जाती। लेकिन कोई महिला उसी श्मशान घाट में मुर्दा जलाने का काम करने लगे, तो कैसा लगेगा? यकीन करना मुश्किल है। मगर जौनपुर में यह हकीकत है।

पति की एक्सीडेंट में मौत और 4 बच्चों को पालने की जिम्मेदारी ने एक महिला को मुर्दा जलाने पर मजबूर कर दिया। समाज ने ताना मारा। गलत बताया। महिला उनसे पूछती कि यह न करूं,तो परिवार कैसे चलेगा, कोई काम है? लोग निरुत्तर हो जाते।

इस बार नवरात्रि पर हम आपके लिए ‘नौ दिन नौ नारियां’ सीरीज लेकर आए हैं। ये वो नारियां हैं, जिन्होंने अपने काम से समाज में ऐसी छाप छोड़ी कि लोग सोचने पर मजबूर हो गए। आज हमारी कहानी की किरदार जौनपुर की महरीता चौधरी हैं।

इस कहानी में उनका बच्चे पालने को लेकर संघर्ष है। लोगों के ताने हैं। बेटियों के बेवड़े पतियों का दुख है। दिव्यांग बेटे की चिंता है। कुल मिलाकर उनकी पूरी कहानी संघर्षों और तानों से भरी है, लेकिन उन्होंने इन तानों के खोखलेपन को पहचाना और संघर्ष ही जिंदगी है, इस कड़वी सच्चाई को स्वीकारा और अपना परिवार चलाया। आइए शुरू से जानते हैं…

पति की मौत के बाद घर चलाने का संकट था
जौनपुर में बदलापुर से शाहगंज की तरफ बढ़ेंगे, तो करीब 13 किलोमीटर बाद गोमती नदी मिलेगी। इसी के एक छोर पर सुबह से लेकर शाम तक लाशें जलती दिखती हैं। घाट का नाम पिलकिछा है।

इसकी पहचान यह है कि यहां कई पुरुषों के बीच एक महिला भी लाशों का अंतिम संस्कार करती है। इनका नाम महरीता चौधरी है। महरीता के पति संजय चौधरी पहले यही काम करते थे। तब महरीता यह काम नहीं करती थीं।

2014 में संजय लकड़ी उतारने के लिए पास के ही चौराहे पर गए थे। सड़क पर खड़े थे तभी एक गाड़ी ने उन्हें टक्कर मारी। टक्कर इतनी तेज थी कि मौके पर ही संजय की मौत हो गई। पति की मौत की खबर सुनकर मानो महरीता के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। किसी तरह खुद को संभाला।

अब परिवार को पालने की जिम्मेदारी थी। परिवार में 3 बेटियां और 1 दिव्यांग बेटा था। पति की मौत के बाद ससुर मदद के लिए आगे आए, लेकिन उन्होंने भी कभी 100 रुपए दिए तो कभी 200। लेकिन इतने पैसों में परिवार चला पाना संभव नहीं था।

महरीता ने तय किया कि अब परिवार चलाने के लिए लाश जलाना ही अंतिम विकल्प है। इसलिए वह पिलकिछा घाट पर चली आईं। यहां पहला विरोध उन्हें अपने आस-पास के लोगों का झेलना पड़ा। वो कहते कि दुनिया में कहीं और महिलाएं लाश जलाती हैं क्या जो यहां तुम कर रही हो? महरीता के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता।

वह कह देती कि इसके अलावा हमारे पास कोई काम नहीं है। यही करके मैं अपना परिवार चला सकती हूं। परिवार पालने की बात कह देती तो बाकी लोग चुप हो जाते। महरीता ने पहले कभी लाश नहीं जलाई थी। यहां तक कि वह लाश के पास तक नहीं गई थी। इसलिए जब पहली बार चिता के पास पहुंची तो उसकी तेज आंच ने उन्हें परेशान भी किया।

1 मिनट भी चिता के पास खड़े रहना मुश्किल था। लेकिन मजबूरी इस मुश्किल से ज्यादा बड़ी थी। इसलिए महरीता वहीं तपती खड़ी रहीं। बांस के जरिए कभी लकड़ी ऊपर करती तो कभी चिता तेज जले इसके लिए उसमें घी डालती।

यहां दुखी लोग आते हैं, पैसा मांगना हमारी मजबूरी है
हमने महरीता से पूछा कि कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई लाश लेकर आया हो और आपको देखकर कहा हो कि आप महिला हैं, आप मत जलाइए हमारी लाश? महरीता कहती हैं- ‘हां, ऊंची जाति के लोग जब आते हैं तो वह मुझे देखकर कहते हैं कि आपको यह नहीं करना चाहिए। फिर मैं उन्हें अपनी मजबूरी बताती हूं, उसके बाद वह कुछ नहीं बोलते।’

महरीता कहती हैं कि कुछ बेहद गरीब परिवार के लोग लाश लेकर आते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके घर में जवान व्यक्ति की किसी दुर्घटना में मौत हो गई। वो बहुत दुखी होते हैं। हम उनकी लाश तो जला देते हैं लेकिन पैसे के लिए नहीं कहते। कह देते हैं कि देना होगा तो दीजिएगा, नहीं हो तो कोई बात नहीं। लेकिन वो लोग जरूर कुछ न कुछ दे देते हैं। हमारा कोई रेट फिक्स नहीं है। कोई 100 रुपए दे देता है तो कोई 300 भी थमा जाता है।

कोरोना काल में लाशें जलाने की जगह तक नहीं
साल 2021 में जब कोरोना की दूसरी लहर आई तो इलाके में मौत की संख्या तेजी से बढ़ गई। घाट पर पहले रोज 15-20 लाशें आती थी वह 70-80 तक पहुंच गई थी। उस वक्त को याद करते हुए महरीता कहती हैं, ‘कोरोना का वक्त बेहद मुश्किल भरा था। जो लोग लाश लेकर आते थे वो भी चिता के पास जाने से बचते थे। लेकिन हम कहां जा सकते थे, मुर्दा जलाने की जिम्मेदारी हमारी होती है। हम वही करते।’

महरीता कहती हैं, ‘उस वक्त एक चिता से 7-8 फुट की दूरी पर दूसरी चिता लगती थी, दोतरफा आंच के बीच लाशों को जला पाना सबसे मुश्किल काम था। कई बार हाथ जल गए। जलती लकड़ी के टुकड़े पैर को जला गए। लेकिन इस काम से भाग नहीं सकते थे। घाव पर कपड़ा बांधते और फिर से मुर्दा जलाने के काम में जुट जाते।’

बेटियों की शादी जिससे की, वो शराबी निकल गए
महरीता की जिंदगी में एक के बाद एक दुख आए। बेटा पहले से दिव्यांग था। 2014 में पति की मौत हो गई। घर में जवान बेटियां थीं। महरीता ने दो बेटियों की शादी की। दोनों 4 साल ससुराल में रहीं लेकिन पति के शराब पीकर हंगामा करने से वो परेशान हो गईं। पिछले 3 साल से दोनों बेटियां अपने बच्चों के साथ मायके वापस आ गईं। अब महरीता ही उनकी सारी जरूरतें पूरी कर रही हैं।

हमने कहा कि रिश्ता करते वक्त लड़कों के बारे में कुछ पता किया होता तो अच्छा रहता। वह कहती हैं, पति होते तो बेटियों का रिश्ता जहां करते, वहां अच्छे से देखते। हमसे कुछ लोगों ने कहा कि वाराणसी में लड़का अच्छा है। मेहनती है। बेटी का ख्याल रखेगा। हमने सबकी बातों को मानकर शादी कर दी। दूसरी बेटी की शादी भी ऐसे ही लोगों के भरोसे में आकर कर दी। लेकिन दोनों के पति एक जैसे बेवड़े निकल गए। उन्हें अपने बीवी बच्चों का होश ही नहीं। घर की किसी जरूरत से कोई मतलब ही नहीं। अब दोनों यहीं हैं, हम ही सबका ख्याल रखते हैं।