The Hindu हिंदी में:भारत की राजनीति में दलितों की भागीदारी बढ़ाने में INDIA अलायंस को आगे आना चाहिए, पढ़िए 17 अक्टूबर का आर्टिकल

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को 2024 के आम चुनाव में विपक्ष के INDIA अलायंस से बड़ी चुनौती मिल सकती है। हालांकि, INDIA अलायंस प्रभावी लग सकता है, लेकिन बिना प्रमुख दलित पार्टियों के शामिल हुए, इनके सामाजिक न्याय के एजेंडे पर पूरी तरह भरोसा नहीं हो पाता। तमिलनाडु की विदुथलाई चिरुथैगल काछी (वीसीके) पार्टी ही यही एक ऐसी पार्टी है, जो दलितों के राजनीतिक चिंताओं का प्रतिनिधित्व करती है।

दलित राजनीति का उदय और पतन

अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भारत की आबादी का 25% हिस्सा हैं। हमारी सामाजिक मान्यता है कि दलित और आदिवासी अक्सर समाज के सबसे गरीब लोग होते हैं, जो सबसे कम सामाजिक और आर्थिक हालात में जीते हैं। इस आम राय के उलट, बी.आर.अंबेडकर ने सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले मजबूत समूह के रूप में की।

अब इस समूह को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक स्वभावी और विकासशील ग्रुप के रूप में देखना चाहते थे। इन मांगों को ध्यान में रखते हुए, आजाद हुए देश में सुरक्षा और नीतिगत ढांचे को इस तरह तैयार किया गया कि राज्य की संस्थाओं में सबकी भागीदारी तय की जा सके। फिर भी, प्रमुख सरकारी संस्थान और पूंजीवादी संपत्तियों पर सामाजिक रूप से मजबूत लोगों का ही कब्जा है। इस स्थिति को बदलने के लिए ही उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और बिहार में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) का जन्म हुआ, ताकि वे सत्ता के दावेदार बन सकें।

कुछ समय पहले तक, दलितों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के एक जरूरी हिस्से के रूप में देखा जाता था, जिसमें सामाजिक न्याय की राजनीति की आधिकारिक आवाज के रूप में उभरने और दलित जनता के जायज नेता के रूप में उभरने की क्षमता थी। हालांकि, सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समूहों, विशेष रूप से पिछड़ी जातियों और मुसलमानों को एकजुट करने और राइट-विंग के राजनीतिक दावे के खिलाफ एक प्रभावी रूकावट बनाने में बसपा की क्षमता सीमित रही है, इसलिए दलित-बहुजन राजनीति की नई आकांक्षाएं काफी हद तक पटरी से उतर गई हैं।

अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि दलितों के भीतर एक वर्ग, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में, राइट-विंग प्रोपेगेंडा से धार्मिक प्रोपेगेंडा से प्रभावित हैं और हिंदुत्व में शामिल हो गए हैं। अन्य दलित राजनीतिक दल, विशेष रूप से महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन आघाडी (वीबीए) और वीसीके अपने क्षेत्रीय स्वरूप के कारण महत्वपूर्ण चुनावी लड़ाई जीतने और राजनीतिक आधार को बढ़ाने में अयोग्य है। पंजाब, बंगाल, मध्य प्रदेश और हरियाणा जैसे महत्वपूर्ण दलित आबादी वाले कई राज्यों में, समुदाय की प्रभावी राजनीतिक उपस्थिति भी नहीं है।

आदिवासियों के दावे से सबक

इसके विपरीत, राइट-विंग के आदिवासियों से सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दों पर जुड़े रहने से, आदिवासियों के बड़े हिस्से को हिंदुत्व के दायरे में प्रभावी तरीके से लाया जा सका।

उदाहरण के लिए, झारखंड में, जेएमएम ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को निर्णायक रूप से हराया। यह बताया गया कि भाजपा के खिलाफ आदिवासी गुस्सा दूर-दूर तक फैला हुआ था। छत्तीसगढ़ में 2018 के विधानसभा चुनावों में, एसटी और एससी की ज़्यादातर आबादी वाले चुनाव-क्षेत्रों ने कांग्रेस को जीत की ओर ले जाने में सहयोग दिया। इसी तरह, मध्य प्रदेश के चुनावों में, कांग्रेस ने आदिवासी चुनाव क्षेत्रों में भाजपा से बेहतर प्रदर्शन किया।

सबको राजनीति में एक करने का एक प्रयास

बसपा के लिए आने वाले चुनाव अपनी ‘अंबेडकरवादी’ पहचान की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण होंगे; पार्टी को INDIA अलायंस में शामिल होने में संकोच नहीं करना चाहिए। दलित राजनीतिक संगठनों को सामाजिक न्याय के एजेंडे पर फिर से जोर देना होगा।

खासकर ऐसे समय में जब हिंदुत्व की राजनीति गणतंत्र के मूलभूत संवैधानिक मूल्यों को बदलने के लिए दृढ़ संकल्पित है। दलित पार्टियां, INDIA अलायंस में भाग लेकर, सामाजिक रूप से अधिकारहीन समूहों की एकता सुनिश्चित कर सकती हैं और साथ ही सत्ता और राजनीतिक संपत्ति को बराबरी से बांटने के लिए ठोस मांग कर सकती हैं।

साथ ही, INDIA अलायंस को एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक विकल्प बनने के लिए, उसके पास सामाजिक न्याय का एजेंडा और अधिक दलित-आदिवासी नेता होने चाहिए। क्योंकि दलित और आदिवासी राजनीतिक समझ, सामाजिक न्याय(सोशल जस्टिस), सेकुलरिज्म और सोशलिज्म के वैचारिक मूल्यों से तैयार होती है। इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि इन सामुदायिक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल INDIA में स्वाभाविक भागीदार होंगे।

दलित पार्टियां, INDIA अलायंस में भाग लेकर, सामाजिक रूप से अधिकारहीन समूहों की एकता को पक्का कर सकती हैं और साथ ही सत्ता और राजनीतिक संपत्ति के समान वितरण के लिए मजबूत आवाज उठा सकती हैं।

लेखक: हरीश एस वानखेड़े, सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज़, स्कूल ऑफ़ सोशल साइंस,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय(JNU) में प्रोफेसर हैं।